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वैकल्पिक व्यवस्था किये बिना 8 नवम्बर 2016 को सरकार की नोटबन्दी की घोषणा तुगलकबन्दी साबित हुई

आलेख: वासुदेव मंगल

8 नवम्बर 2016 को भारत के प्रधानमन्त्री ने अचानक रात्री को 8 बजे 500 और 1000 के करेन्सी नोट को रात्री को 12 बजे से वैधानिक चलन से बन्द करने की घोषणा देश की जनता के नाम प्रसारण में की।

इस घोषणा से देश हतप्रभ रह गया। बिना सरकारी नये जारी किए जाने वाले 500 और 2000 के डिनोंमीनेशन वाले नोट की रिजर्व बैंक की देश की तमाम करेंसी चेस्टों में व्यवस्था के बिना 125 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में जिसमें 99 प्रतिशत जनता गरीब, मध्यम श्रेणी के तबके की है अचानक मुद्रा विमुद्रीकरण की बिना तुरन्त व्यवस्था की घोषणा के सकते में आ गई। क्या किसान, मजदूर, व्यापारी और आम जन सब परेशानी में आ गए। आमजन के किसी के भी समझ में नहीं आ रहा था कि करें भी तो क्या करें? आखिर करेंसी (मुद्रा) का मामला था। तुरत-फुरत में 5001000 के नोट को चलन से बंद करने बिना वैकल्पिक व्यवस्था किये। देश की जनता को परेशानी में डालने वाली जैसी घोषणा साबित हुई। पैसों के बिना घर खर्च की समस्या हर किसी आमजन के डायालिसिस पर आ गई। मनी डिसअरेंन्जमेण्ट की घोषणा अगले 50 दिनों तक सांसत में डालने वाली घोषणा थी। 50 दिनों की व्यवस्था की सरकार ने मोहलत इसलिए जनता से मांगी ताकि नई करेंसी की व्यवस्था सरकार तब तक कर लेगी।

 ऐसी व्यवस्था तो सरकार को तब करनी चाहिए थी जबकि 125 करोड़ की आबादी वाला पूरा देश कॉरपोरेट सेक्टर में काम कर रहा है। आनन फानन में नई वैकल्पिक मुद्रा की व्यवस्था किए बिना 5001000 के नोट तुरंत बंद कर देना गरीब व मध्यम लोगों के लिए जी का जंजाल हो गया। यह तो विशुद्ध रूप से आमजन से जुड़ा हुआ फैक्टर जो था। बिना वैकल्पिक एवं व्यवहारिक व्यवस्था के मुद्रा विमुद्रीकरण के दुष्प्रभाव इस प्रकार हैंः-

(1)          मुद्रा आमजन के जीवनयापन का साधन हैं। इसको व्यवहारिक व्यवस्था के बिना बन्द कर देना पूरे देश की अर्थव्यवस्था को चोपट करने जैसा हुआ।

(2)          अचानक आमजन को एटीएम से सीमित मात्रा में 2000 रूपये तक मुद्रा निकालने की घोषणा जनता को अपना सारा काम छोड़कर 2-3 दिनों तक यहां तक कि 31 दिसंबर 2016 तक 50 दिन तक की अवधि भारी कष्टकारक रही। भारत की 90 प्रतिशत जनता निरक्षर हैं। आमजन मुद्रा निकासी की प्रणाली से भली प्रकार वाकिफ नहीं है।

वृद्ध, महिलाएं, बच्चे, बड़,े युवा सभी परेशान। यहां तक की दिन रात तक नंबर नहीं आने से निराश। लाईन में खड़े कई वृद्ध महिलाएं गश खाकर गिर गए। कईयों की अकाल मृत्यु हो गई।  धूप, प्यास, भूख से परेशान जनता भयभीत हो गई।

(3) सरकार ने जबरिया लोगों को केशलेस सिस्टम की तरफ धकेल दिया। लोगों को जीरो बैलंस खाता खुलवाने का प्रलोभन देकर आकर्षित किया।                  

(4)          फिर बैंेकों में खाता खुलवाने के बाद सरकार ने उसमें मिनिमम बैलेंस मेन्टेन रखने के निर्देश रिजर्व बैंक के जरिये दिये गये।

(5) कैशलेश सिस्टम लागू करने के लिए रिजर्व बैंक के जरिये हफ्ते महिने में एक बार 2000 रूपये तक केश निकालने के नियामक जारी किए गए।

(6)          इस प्रकार रिजर्व बैंक जैसी स्वायतशासी संस्था को भी सरकार ने खिलौना बनाकर 30 दिन में 36 बार, बार-बार नियम बदलने के लिए मजबूर कर दिया।

(7)          जनता को उनके स्वयं के खातों को फ्रीज करने जैसा नियम जारी करना आमजन के लिए परेशानी का सबब बन गया। आमजन अपने ही खाते से पैसे नहीं निकाल सके, ऐसा कौन सा कानून?

(8)          यहां तक कि पूर्व निर्धारित 50 दिन बाद भी सरकार नए नोटों की भली प्रकार व्यवस्था नहीं कर पाई।

(9)          सन् 1978 में एक बार भारत सरकार ने 1000, 5000 और 10000 के नोटो को प्रचलन से बंद किया था। लेकिन एक निश्चित समय तक की सीमा दो दिन पश्चात रात्रि 12 बजे घोषणा तक। लेखक भी उस समय बैंक सर्विस में था। लेखक को अच्छी तरह याद है कि निश्चित लघु तारीख की समय सीमा रात्रि 12बजे तक जो नोट बैंक में जमा हो गए उन्हें ही वैध माना गया एवं निर्धारित की गई तारीख एवं समय के बाद बैंकिंग व्यवस्था में मौजूद उक्त डिनोमिनेशन के नोटो के अलावा बाकी सभी नोट बेकार हो गये।

(10) यहां पर तो सरकार द्वारा नए नोटों की बिना कोई माकूल व्यवस्था किये चलन में जारी  500 एवं 1000 के महत्वपूर्ण नोटों को प्रचलन सेे बंद करने की आधी अधूरी घोषणा अपवाद स्वरूप कुछ निश्चित जगह पर उक्त नोटो के चलन को जारी एवं वैध रखते हुए जैसे टोल नाके, पेट्रोल पंप, सहकारी डेयरी, रोडवेज, रेल व हवाई यात्रा के प्लेटफार्म टिकट खिड़कियों आदि पर पुराने 500 और 1000 के नोटों को करीब 2 महीनों तक चलन से बंद की गई मुद्रा का संकुचन ना होकर गजब का मुद्रा प्रसार हो गया। जो मुद्रा लोगों के द्वारा अथाह मात्रा में एकत्रित करके तहखानों में रखी गई थी वह ब्लैकमनी भी इन प्लेटफार्म सेे बाहर आकर सफेद हो गई।

(11) नतीजा यह हुआ कि भारी मुद्रा प्रसार से महंगाई पर नियंत्रण नहीं हो सका। महंगाई और ज्यादा बढ़ गई।

(12) इस प्रकार आमजन में हताशा एवं बेरोजगारी हो गई। ब्लैक मनी का संकुचन नहीं हुआ बल्कि और ज्यादा बढ़ गया। सहकारी बैंकों पर अंकुश नहीं लगने से विकट स्थिति पैदा हो गई।

(13)  आम जनता परेशान हो गई। और चन्द काॅरपोरेट सेक्टर के चुनींदा पूंजीपतियों को फायदा हुआ और वे रातोंरात मालामाल हो गए।

(14) सरकार का कैशलेस सिस्टम बूरी तरह फैल हुआ। गरीब देश का नागरिक जो दिन रात किसान, मजदूर महनत कर दो जून की रोटी की जुगाड़ कर अपने परिवार का भरण पोषण करता है वे बूरी तरह सरकार की अचानक की गई कार्यवाही से हतप्रभ, भौचक्का रह गया और पूरी तरह प्रभावित हो गया।

(15) इस कार्यवाही से सरकार देश की जनता को क्या कहना चाहती है समझ में नहीं आता है।  पहले सरकार को होमवर्क करके नई करेंसी की व्यवस्था की जानी चाहिए थी और फिर नोटबंदी करती तो सरकार जरूर इस कार्य में सफल होती। इस कार्यवाही से तो सरकार के चंद लोगों को संरक्षण मिला, बाकी देश की जनता परेशान हुई। अतः ऐसे आर्थिक मसले तसल्ली से विवेक से सोच समझकर अमल में लाने चाहिए।

आर्थिक मुद्दों के राजनीतिकीकरण से बचना चाहिए। इससे देश की अर्थव्यवस्था पर विपरित प्रभाव पड़ता है, जो वर्षों तक देश को आर्थिक संकट में धकेले हुए रहती है।

नई करेंसी की व्यवस्था कर सरकार यह कार्य करती तो सरकार का यह कदम देश के आर्थिक जगत में निश्चित ही क्रांतिकारी कदम साबित होता और देश आर्थिक क्षितिज पर होता।

भारत देश गरीब देश है। विकसित देशों की अर्थव्यवस्था एकदम से इस निरक्षर एवं गरीब विकासशील देश में लागू नहीं की जा सकती है।

कैशलेस व्यवस्था एवं पेपरमनी व्यवस्था पूर्ण शिक्षित एवं विकसित देश में ही सफल हो सकती है, जहां पर बैंकिंग व्यवस्था पूरी तरह से सुदृढ हो।

अतः सरकार को पहले देश को शिक्षित कर रोजगार सुलभ कराना चाहिए उसके पश्चात ही पश्चिमी देशों की ऐसी तथाकथित आर्थिक उन्नति के कारक लागू करना चाहिए।

बिना आमजन को बैंकिंग व्यवस्था के बारें मे जागरूक किये ऐसे आर्थिक कदम फायदे के बजाए न केवल देश की अर्थव्यवस्था अपितु आमजन के दैनिक जीवन के लिये भी बेहद घातक और हानिकारक होते हैं।

नौकरीपेशा व्यक्ति अपनी सेवानिवृत्ति पर मिलने वाली एकमुश्त रकम की बैंक में फिक्स डिपोजिट (मियादी जमाबन्दी) इसलिए करवाता है ताकि वह फिक्स डिपोजिट के मासिक ब्याज से अपने परिवार के भरण-पोषण का जुगाड कर सके।

सरकार तो इस व्यवस्था को हतोत्साहित करने के लिए बैंकों की स्थायीं एवं बचत खातों पर ब्याज की दरों को लगातार कम करके गरीब आमजनप की पारिवारिक भरण-पोषण की व्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। ऐसी स्थिति में कोई भी व्यक्ति अपनी जमाराशि को बैंक मंे रखना चाहेगा? आमजन का सरकार की ऐसी दिशाहीन आर्थिक नीतियों से विश्वास उठता जा रहा है। बैंक से खाते में प्रत्येक लेन देन पर चार्ज लगा देना, बिना खातेदार की रजामंदी के उसके खाते में बीमा की प्रिमियम राशि नामे लिख देना, अन्य तमाम खर्च जैसे बिना ग्राहक के आवेदन के एटीएम कार्ड जारी कर उसका शुल्क बैंक खाते से काट लेना, चैक से रकम निकालने पर शुल्क लेना आदि गैर जरूरी मदों को सरकार ने बैंकों की कमाई का जरिया बना लिया है। चन्द चुनींदा पूंजीपतियों को दी गई लाखों-लाख कर्ज की राशि को जानबूझकर एनपीए घोषित कर उसे माफ करना गरीबों की खून-पसीनें की कमाई के साथ बेहद कं्रूर मजाक़ है।

सरकार ने हाल ही में सरकारी बैंकों के शेयर बेचकर 58 हजार करोड रूपये जुटाने की बात कही है। यह लगभग सरकारी बैंकों का अस्तित्व समाप्त करने जैसी बात होगी, क्योंकि गरीब तो प्राईवेट बैंकों में जा ही नहीं सकेगा एवं बैंको के सरकारीकरण की मूल भावना एवं बैंको की आमजन के प्रति अपनी प्रतिबद्वता ही स्वतः ही समाप्त हो जावेगी, जो कि भारत जैसे विशाल अर्थव्यवस्था के लिये दीर्धकालिक दुःस्वपन साबित होगा।

आलेख:- ब्यावर शहर के इतिहासविद् वासुदेव मंगल

 

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