ब्यावर का व्यापार  


रचनाकारः वासुदेव मंगल  


ब्यावर के निवासियों की प्रार्थना पर कर्नल डिक्सन ने ब्यावर का नाम नया नगर रक्खा। यह नगर मेरवाड़ा का मुख्यालय बनाया गया।   
यहाॅं के व्यापारियों और निवासियों के जान माल की सुरक्षा हेतु उनके कहने पर चार दरवाजों 32 बुर्जियों के साथ एक सुरक्षा प्राचीर सरकारी 23840 रूपये की लागत से बनाई गई। अजमेरी गेट के दाहिनी तरफ से जाति के आधार पर मौहल्ले बनाये गये। छावनी के बालाजी का मन्दिर व शहर के भीतर रघुनाथजी, महादेवजी केे मन्दिर बाजार में व गोपालजी का मन्दिर गोपालजी मौहल्ले में बनवाये।   
मुख्य चोपाटी से चारों दरवाजों की सीध में 72 फीट चैड़ी सड़क के दोनों ओर पाॅंच सौ दुकानें बनाई गई जिनका काम 1 मई सन् 1836 ई. को आरम्भ किया गया। इनमें से तीन सो दुकानें व्यापार करने हेतु व दो सो दुकाने सामान रखने के लिए गोदाम हेतु काम में ली गई। मुख्य चैपाटी पर महसूल कार्यालय व थाना एक दुसरे के आमने सामाने बनाये गये। चारों दरवाजों पर चार पुलिस चैकी बनाई गई। वर्तमान में थाना पोस्ट ओफिस के बाॅंयी तरफ तथा चुंगी कार्यालय अजमेरी गेट के बाॅंयी तरफ स्थित हैं। अजमेरी गेट को छोड़कर पुलिस चैकी तीनों दरवाजों पर आज भी स्थित है। फौजी मैगजीन की जगह वर्तमान में छावनी में सदर थाना कार्य कर रहा है।  
आरम्भ में दो वर्ष तक व्यापारियों से कोई महसूल वसूल नहीं किया गया। व चार साल तक रियायती दर पर चुॅंगी वसुल की गई। शहर में तीन कुएॅं 27 फीट के घेरे में खुदाए गए। इनके नाम पंचायती कुआ, मेहमदी कुआ और खारया कुआ। चारों दरवाजों बाहर चार बावड़ीयों का निर्माण कराया गया। अजमेरी दरवाजे के बाहर सन् 1823 ई. में 40 कोटडि़यों की जेल बनायी गईं जो वर्तमान में तहसील कार्यालय है।   
आरम्भ में लगभग 2000 परिवार चार दिवारी के अन्दर विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का निर्माण करने व व्यापार करने में मशगूल हो गये। सन् 1850 ई. में कर्नल डि़क्सन ने नया नगर में चार दिवारी के भीतर एक अस्पताल का निर्माण किया।   
फतेहपुरिया बाजार में साठ दुकाने स्थानीय सर्राफ व देशी बैंकर का कार्य करने वाले व्यापारियों ने ली। दस दुकाने फतेहपुरिया महाजन ने ली।   
इस प्रकार आरम्भ में सन् 1838 ई. में सेठ फूलचन्दजी डाणी मेड़ता से ब्यावर आये जिन्होंने रूई का व्यापार आरम्भ किया। आरम्भ ने उन्होंने पच्चीस रूई कातने की लगाकर रूई से सूत कातने का काम शाहपुरा मोहल्ले में आरम्भ किया जो आज भी चरखी गली कहलाती है।   
चाॅंदमलजी बजाज के दादा सेठ दिलेरामजी को डिक्सन साहिब नदबई कुम्हेर से ब्यावर लाकर पलटन को राशन वितरण करने का काम सुपुर्द किया। इसी प्रकार फौजीयों की वर्दी रंगने का कार्य करने हेतू नागौर से आठ परिवार ब्यावर आये जो रंगरेज कहलाये।   
श्रीलालजी शिवलालजी पण्डितजी को देवली से लाकर छावनी के बालाजी व शहर के भीतर रघुनाथजी, महादेवजी व गोपालजी के मन्दिर की पुजा अर्चना का काम सौंपा। इस शहर की आधार शिला स्वंय डि़क्सन साहब ने 1 फरवरी सन् 1836 ई. में अजमेरी गेट पर रक्खी जिसकी पुजा श्रीलालजी शिवलालजी महाराज ने करवाई।   
इस प्रकार ब्यावर में व्यापार की शुरूवात हुई। जो कुछ ही समय में बहुत तेजी से प्रगति करते हुए कालान्तर में पूरे भारत में उन और रूई की प्रमुख मण्डी बनी जहाॅं पर लगभग तीस हजार रूई व उन की गाॅंडियाॅं प्रति वर्ष आने लगी थी और जिसके कारण पन्द्रह बीस रूई व उन की जिनिंग व प्रसिंग फैक्ट्र्यिाॅं स्थापित हो गई तथा रूई के कारण तीन बड़ी कपड़ा मील ब्यावर में स्थापित हुई। इस प्रकार उन, रूई व सर्राफी वायदे का तिजारत देखते देखते ब्यावर शहर में शिखर पर पहॅुंच गया और ब्यावर भारतवर्ष में ही नहीं अपितु विश्व के मानचित्र पर उन्नीसवीं सदी के अन्त में ही आ गया।

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