पहली
किस्त राजपूताना के मध्य में अरावली
पर्वत श्रंखला कहीं पर छोटी तो कहीं पर बड़ी कहीं पर छीत्री हुई तो कई पर
धुमावदार इस प्रकार यह पर्वत क्षेत्र काफी दूर तक फैला हुआ है। इसके मध्य
एक पर्वत अजयमेरू भी स्थित है जो कतारबद्ध होकर सुदूर दक्षिण तक 100-150
किलोमीटर तक की लम्बाई में फैला हुआ है।
ईसा से पांच सदी पूर्व इस क्षेत्र में बौद्ध धर्मावलम्बी रहते थे। इसके
समानान्तर जैन धर्म व सनातन धर्म का प्रादुर्भाव हुआ। अतः बौद्ध धर्म के
विघटन के साथ जैन धर्मी व सनातन धर्मी लोग इस पर्वत क्षेत्र में रहने लगे।
अतः ईसा के पश्चात् ऑंठवी सदी के पश्चात इस क्षेत्र में राजपूत राजाओं का
वर्चस्व कायम हो गया। इन्होने मेर जाति को अजयमेरू पर्वत की तलहटी में रहने
वाले लोगों को दक्षिण में खदेड़ दिया तब से ये लोग इस क्षेत्र निवास करते आ
रहे है अतः यह क्षेत्र मेरवाड़ा के नाम से प्रसिद्ध है।
मेर का अर्थ पर्वत से है और वाड़ा का अर्थ निवास स्थान है। जिसका अर्थ मेरो
के रहने का निवास स्थान अर्थात पहाड़ी जाति के लोगो के रहने का पर्वतीय
क्षेत्र।
सन् 1192 ईस्वी में मोहम्मद गोरी ने अपने सूबेदार कुतुब्बुदद्ीनएबक को भारत
का राजपाठ दे दिया। कुतुब्बुदद्ीन ने अजयमेरू क्षेत्र पर विजय प्राप्त कर
अपने एक सिपहलसालार को इस ईलाके की महशूल वसूल करने के लिए छोड़ा। जिसके साथ
ख्वाजा मोईनुद्दिनचिश्ती 51 साल की उम्र में अजमेर आये जिन्होंने इस
क्षेत्र इस्लाम धर्म का प्रचार प्रसार किया। परिणामस्वरूप यहॉं के निवासी
पर्याप्त संख्या में मुस्लिमधर्म के अनुयायी बन गये। मेरवाड़ा प्रदेश में इस
प्रकार हिन्दू मुस्लिम धर्म की मीश्रित संस्कृति का उदय हुआ जो हिन्दू
रीति-रिवाजों के साथ साथ मुस्लिम रीति-रिवाज भी तभी से साथ साथ मानते चले आ
रहे है। यहॉं तक कि बेटी व्यवहार भी इन परिवारों में परस्पर होता चला आ रहा
है। इस संस्कृति को पोलीकल्चर के नाम से पुकारते है जो मात्र मगरा-मेरवाड़ा
प्रदेश में ही पूरे विश्व में देखने को मिलती है।
ऑंठवी शताब्दी में वर्तमान बलाड् गॉंव को उस समय बडली नगर के नाम से जाना
जाता था। जो उस वक्त बड़ा ही समृद्ध और उन्नत नगर था। उस वक्त इस नगर में
जैन धर्मावलम्बी अधिक संख्या में रहते थे। ख्वाजा साहब के इस्लाम धर्म के
प्रचार करने से अधिकतर यहॉं के निवासी मुसलमान हो गये और ठठेरों का काम
करने लगे। अजमेर कुतुब्बुद्धिन के प्रतिनिधि द्वारा इस क्षेत्र का महशूल
बडली नगर में ही उस वक्त वसूल किया जाता था। कुछ लोग कृषि कार्य करते थे।
बाकि बचे हुए लोग जो कोई भी काम नहीं करते थे उन्होने लूटपाट करना आरम्भ कर
दिया। अतः यह क्षेत्र जनजाति क्षेत्र के नाम से पहचाना जाने लगा। आज भी यह
क्षेत्र मगरा मेरवाड़ा क्षेत्र ही कहलाता है।
दूसरी किस्त
18वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध से ही आसपास की देशी रियासतों के राजा महाराजाओं
ने इस क्षेत्र पर विजय प्राप्त करने के लिए आक्रमण आरम्भ किये। इस प्रकार
सन् 1818 तक इस क्षेत्र पर नो आक्रमण किये गये। परन्तु इस क्षेत्र के मेरों
की वीरता और शौर्यता के कारण ऑठ आक्रमण नाकाम रहे। परन्तु नवें आक्रमण में
अंग्रेजी सेना ने देशी रियासत मेवाड़ और मारवाड़ कि गठजोड़ सेनाओं के साथ
मिलकर श्यामगढ़, झाक, लूलवा गॉंवों पर एक साथ अलग अलग सेनाओं की टुकड़ीयों
में एक ही समय पर आक्रमण कर मेरों को परास्त किया। इस प्रकार यह क्षेत्र
अंग्रेजी गठजोड़ सेनाओं के नियन्त्रण में आ गया। बत्तीस गॉंव मेवाड़ क्षेत्र
के, इक्कीस गॉंव मारवाड़ क्षेत्र के और इक्त्तीस गॉंव अंग्रेजो ने अपनी
सेनाओं के जरिये जीते।
अतः इस क्षेत्र पर नजर रखने के लिए ब्यावर के इस उॅंचें पठार पर एक फौजी
छावनी की स्थापना सन् 1823 ईस्वीं में कर्नल हेनरी हॉल की सदारत में की गई।
चूॅंकि यह क्षेत्र भियावान जंगल था। अतः इस क्षेत्र में अधिकतर लूटपाट हुआ
करती थी। इसको रोकने के लिए ही फौजी छावनी की स्थापना ब्यावर में की गई जो
ब्यावर फौजी छावनी कहलायी।
तीसरी किस्त
सन् 1835 ईस्वीं में कर्नल हेनरी हॉल ने अस्वस्थता के कारण अपने पद से
ईस्तीफा दे दिया। उनके स्थान पर कर्नल चार्ल्स जार्ज ड़िक्सन ब्यावर छावनी
के सदर पर नियुक्त किया गया। डिक्सन ने सोचा कि इन लोगों को बाहुबल से नहीं
जीता जा सकता है। अपित् प्यार मोहब्बत और प्रेम से इनके दिलों को जीत कर ही
इन पर शासन किया जा सकता है। अतः ड़िक्सन साहिब ने यहॉं के लोगों के दिलों
को जीतकर यहॉं पर एक नागरिक बस्ती का निर्माण किया जो ब्यावर शहर के नाम से
प्रसिद्ध हुआ।
कर्नल डिक्सन ने अपने 31 गॉंवों के साथ 32 मेवाड़ के गॉंव और 21 मारवाड के
गॉंवों को 99 साल के लीज पर ले कर 84 गॉंवों का एक समूह बनाया जिसको मेरवाड़ा
प्रदेश का नाम दिया और जिसका मुख्यालय ब्यावर शहर को बनाया। यह कार्य
उन्होंने सन् 1839 में किया था जो बदस्तूर 99 साल तक कायम रहा अर्थात सन्
1938 तक मेरवाड़ा प्रदेश स्वतंत्ररूप से कार्य करता रहा और इसकी सुरक्षा के
लिए 144 मेरवाड़ा बटालियन भी बदस्तूर 99 साल तक यानि सन् 1839 से लेकर 1938
तक कायम रही।
चौथी किस्त
कर्नल डिक्सन ने ब्यावर शहर की नींव 1 फरवरी सन् 1836 ईस्वी में अजमेरी गेट
के दाहिने गोखे के नीचे रक्खी। इसको उन और रूई का भारतवर्ष में प्रथम नम्बर
का तिजारती शहर बनाया। यहॉं की तिजारत अगले 100 वर्ष तक भारतवर्ष में ही नहीं
अपित् विश्वभर में प्रसिद्ध रही। अकस्मात् कर्नल ड़िक्सन की मृत्यु 25 जून
सन् 1857 ईस्वी को हो गई। वे इस क्षेत्र के सुपरिन्टेन्डेन्ट व कमिश्नर के
पद पर मृत्यु पर्यन्त तक रहे। फिर 1 नवम्बर सन् 1858 ईस्वी में ब्रिटेन की
संसद ने भारत की बागडोर ईस्ट-इण्डिया कम्पनी से अपने हाथ में ले ली। फिर
ब्रिटेन की सरकार ने सन् 1871 में अजमेर मेरवाड़ा में कमिश्नरी प्रथा कायम
की। यह प्रथा सन् 1947 की 15 अगस्त तक बदस्तूर कायम रहीं जिसके अर्न्तगत
कमिश्नर अजमेर में बैठता था व एक्स्ट्रा असिस्टेन्ट कमिश्नर ब्यावर में
बैठता था जिसके अन्तर्गत आबू पर्वत की तहसील भी ब्यावर तहसील में ही लगती
थी। इस प्रकार ब्यावर मेरवाड़ा का बहुत अधिक महत्व रहा।
परन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात ब्यावर मेरवाडा का हमारी चुनिन्दा
सरकारों ने वर्चस्व कम कर दिया और आज तो इस दयनीय स्थिति में ब्यावर को ला
खड़ा कर दिया है कि वह दिन दूर नहीं जब ब्यावर के स्थान पर कहीं मसूदा को
जिला घोषित न कर दिया जाय।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात अजमेर मेरवाड़ा को सन् 1952 में स्वतन्त्र
राज्य का दर्जा दिया गया जो 30 अक्टूबर सन् 1956 तक बदस्तूर कायम रहा। 1
नवम्बर सन् 1956 में अजमेर मेरवाड़ा राज्य के स्थान पर अजमेर को राजस्थान
राज्य का जिला बनाया गया और ब्यावर को राजस्थान का 360 राजस्व गॉंवों के
साथ सबसे बडा उपखण्ड बनाया गया। तब से इस शहर का प्रशासन एक्स्ट्रा
असिसटेन्ट कमिश्नर के स्थान पर उपखण्ड अधिकारी के नाम से किया जाने लगा जो
आजतक बदस्तूर जारी है जहॉं पर आरम्भ से आज तक भारतीय प्रशासनिक सेवा के
अधिकारी व भारतीय पूलिस सेवा अधिकरी को तैनात किया जाता रहा है।
बडे़ दुख के साथ लिखना पड रहा है कि ब्यावर उपखण्ड को जिला बनाने के बजाय
30 मई सन् 2002 को खण्डित कर इसके 144 राजस्व गॉंवों को मसूदा क्षेत्र में
मिलाकर एक अलग से मसूदा उपखण्ड बना दिया गया। इस प्रकार ब्यावर कि उन्नति
करने के बजाय हमारी राज्य सरकार ने अवनति कर दी, जो ब्यावर क्षेत्र की जनता
के साथ घोर अन्याय है। देखो, भविष्य में राज्य सरकार ब्यावर को किस रूप में
रखना चाहती है। कहीं ऐसा न हो जाय कि पुनर्परिसिमन योजना के अन्तर्गत भिनाय
विधानसभा क्षेत्र को हटाया जाकर मसूदा क्षेत्र के साथ मिला दिया जाय और उसे
जिले का दर्जा प्रदान न कर दिया जावे।
इस प्रकार ब्यावर मेरवाड़ा 1839 से लेकर 1938 तक स्वतन्त्र मेरवाड़ा प्रदेश
रहा जिसकी राजधानी ब्यावर थी। फिर ब्यावर मेरवाड़ा को अजमेर के साथ मीला दिया
गया तब इसका नाम अजमेर मेरवाड़ा हो गया। जहॉं यह प्रथा अंग्रेजी शासन में 14
अगस्त 1947 तक अंग्रेजी कमिश्नरी के अधीन रही और स्वतन्त्रता प्राप्ति के
पश्चात अजमेर मेरवाड़ा सन् 1952 के पहिले तक केन्द्र शासित प्रदेश रहा। उसके
बाद अजमेर मेरवाड़ा अलग से स्वतन्त्र राज्य बनाया गया जो 30 अक्टूबर सन्
1956 तक अस्तित्व में रहा। उसके बाद से ब्यावर उपखण्ड के नाम से आज तक जाना
जाता रहा है। परन्तु इस उपखण्ड के टुकडे कर एक अलग से मसूदा उपखण्ड और बना
दिया गया।
पॉंचवी किस्त
राजपूताना में ब्यावर नगरपालिका सबसे पुरानी और सबसे बडी नगरपालिका है जिसकी
स्थापना 1 मई सन् 1867 को की गई जहॉं सन 1910 तक अंग्रेज कमिश्नर तैनात किये
जाते रहे। सन् 1911 से हिन्दू कमिश्नर सबसे पहिले मथूरा के श्री बृजजीवनलाल
जी को नियुक्त किया गया। सन् 1904 से यह प्रथा सभापति प्रणाली में तब्दील
कर दी गई। जिसके अर्न्तगत सभापति चुनिन्दा व्यक्ति हुआ करता है और
प्रशासनिक अधिकरी कमिश्नर होता है। तत्पश्चात् यह विकेन्द्रीकरण की प्रणाली
राजस्थान में ही नहीं बल्कि पूरे हिन्दूस्तान में ब्यावर की तर्ज पर लागू
की गई। यह नगरपालिका सन् 1911 में क्रमोन्न्त कर नगरपरिषद् में तब्दील कर
दी गई तब से लेकर आज तक यह नगरपरिषद के रूप में कार्य कर रहीं है। ब्यावर
नगरपरिषद राजस्थान की आदर्श नगरपरिषद रही है।
इस नगर परिषद ने राजपूताना में ही नहीं अपित् भारतवर्ष में कई कीर्तिमान
स्थापित किये। यह नगरपरिषद राजस्थान में नहीं बल्कि भारत में एक आदर्श
परिषद के रूप में रही है। बडे दुख के साथ लिखना पड रहा है कि वर्तमान में
इस नगरपरिषद की उदासीन कार्यप्रणाली ने अपने कार्यों पर प्रश्नचिन्ह लगा
दिया है। अतः नगरपरिषद हेय की दृष्टि से देखी जाने लगी है।
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