भारत की जनशक्ति बनाम
सरकार की गलत आर्थिक विदेश नीति
रचनाकार: वासुदेव मंगल
जनशक्ति वाले भारत देश की आर्थिक व्यवस्था समन्वयकारी होनी चाहिए। विश्व के
सबसे बडे़ लोकतन्त्र व जनशक्ति में दूसरे नम्बर के भारत देश की अस्सी
प्रतिशत आबादी कृषि कार्य पर निर्भर है जिसमें कम से कम एक हेक्टेयर, दो
पाॅंच हेक्टेयर वाले खेतों पर जोत करने वाले छोटे किसानो की संख्या अधिक
है। अतः इस देश में अर्थव्यवस्था परिवार के लिए स्वयं का कोई रोजगार हो, ऐसी
होनी चाहिए।
ऐसी अर्थव्यवस्था करने के बजाय हमारी सरकार ने स्वतंत्रता प्राप्ति से आजतक
55 साल में इस क्षेत्र में कोई ठोस कदम नहीं उठाया और न ही कोई इस तरह की
व्यवस्था की। वर्तमान में सन् 1993 से तो आर्थिक उदारीकरण की नीति अपनाकर
तात्कालीक और उसके बाद की उत्तरीवर्ती केन्द्र की सरकारों ने भूमण्डलीय करण
की नीति के अन्तर्गत सन् 2000-2001 में कुल 1429 विदेशी वस्तुओं का आयात
भारत के बाजार के लिए खोल दिया। परिणाम यह हुआ कि भारत का बाजार विदेशी माल
का डम्पींग यार्ड बन गया और बनता जा रहा है। इसका सीधा विपरित भंयकर
दुष्प्रभाव भारत के कृषिजन्य और अकृषिजन्य उत्पादों पर पड़ा। उदाहरण के लिए
जो देशी सरसों को भारत का किसान 2200-2300 रूपये प्रति क्विटंल बेचता था व
ही सरसों आज 1100 रूपये में भी नहीं बिक रहा है यानि भारत की अर्थव्यवस्था
पर विपरित दोहरा प्रतिकूल प्रभाव पड़ा हैं अर्थात भारत की सरकारों ने विदेशी
वस्तुओं को भारत में आने देने की खुलम खुल्ली छुट देकर विदेशी वस्तुओं का
भारत में आयात को मुक्त सरंक्षण देकर भारत की अर्थव्यवस्था को चैपट कर दिया
है। विदेशी वस्तुऐं, भारत में बनी देशी वस्तुओं की अपेक्षा सस्ती पड़ती है।
दूसरी बात यह है कि इतनी विशाल जनशक्ति वाले देश में देशवासियों को ज्यादा
से ज्यादा स्वरोजगार दिया जाना चाहिए था। ऐसा देश में स्वरोजगार उन्मुखी
योजनाऐं चला कर किया जा सकता है। हो रहा इसके विपरित यानि बहारी विदेशी
साॅफ्टवयर तकनीक के जरिए भारत में भलीप्रकार चल रहे कल कारखानों को ज्यादा
से ज्यादा बन्द किया जा रहा है और उनमें काम करने वाले लाखो करोडो मानव
श्रम को बेरोजगार किया जा रहा है। इसका सीधा दुष्परिणाम आज देश में आर्थिक
विषमता, अराजकता तथा अनुशासनहीनता का नजारा चारों तरफ देश में देखा जा रहा
है। विदेशी लोग व्यापार के जरिए ही तो भारत की जन शक्ति कमजोर करना चाहते
है जो बात हमारे वर्तमान हुक्मरान नहीं समझ रहें है। उन्हें देश की चाहत नहीं
है। देश की अस्मत पर विदेशी व्यापार की चाहत है। यही कारण है कि हमारे देश
की मेधावी लाबी लाखों करोड़ो की संख्या में रोजगार के लिए विदेशों में
प्रतिवर्ष पलायन कर रही है और हमारी सरकार उनको रोजगार उपलब्ध नहीं कराने
के कारण उनको देश में रहने के लिए नहीं रोक पा रही है।
प्रतिवर्ष में 47 हजार करोड़ रूपयों के समवर्ती मुल्य के खाद्य तेल विदेशों
से आयात किये गये और उत्तरोत्तर किये जा रहे है। इससे देश में राज करने वाले
शासन प्रशासन, दोनो के ही नुमाइंदो को, अदृश्य रूप से अनाप शनाप आर्थिक
फायदा हो रहा हैं। इसलिए अधिक से अधिक विदेशी वस्तुओं के आयात करने का यह
खेल बदस्तूर जारी है देश जाय भाड़ में। आज के हुक्मरानों में देश के हित की
परवाह किसको है? इस तेल के आयात से सीधा देश में तुरन्त बुरा परिणाम यह हुआ
की देश की 80 प्रतिशत तेल मीले बन्द हो गई। विकसीत देश भारत को कर्जे से
लादकर इसे फिर से गुलाम बनाना चाहते है। आज भारत का बाजार दस हजार से ज्यादा
विदेशी बहुराष्ट्रिय कम्पनियों की गतिविधियों का केन्द्र बना हुआ है। लघु
एवं कुटीर 38 लाख उद्योग ज्यादातर बन्द हो चुके है। इसका बेरोजगारी पर सीधा
असर यह पड़ा है कि अगर एक उद्योग की ईकाई में पचास ओसतन श्रमिक भी माने तो
दस करोड से अधिक जनशक्ति बेरोजगार हो गई। अतः देश को विदेशी वस्तुओं का
उपभोक्ता बाजार बनाकर सरकार ने देश में बेरोजगार की विस्फोटक स्थिति पैदा
कर दी है।
हमारे देश की आर्थिक परिस्थियों की यह मांग है कि हमारी तमाम विकास योजनाएंे
ज्यादा से ज्यादा जनशक्ति पर आधारित होनी चाहिए न कि पूंजी एवं तकनीक
प्रधान। गेट समझोते के अन्र्तगत विदेशी वस्तुओं के लिए भारत का उन्मुक्त
बाजार खोलकर हमारी सरकार ने बहुत बड़ी गलती की है। इसी का कारण आज हमारी देश
की जनता के सामने है कि विदेशी वस्तुओं के आगे हमारी भोली भाली जनता मूक
उपभोक्ता बनकर लुटने के लिए लाचार हैं। उनके सामने और कोई दूसरा रास्ता नहीं
है और एक हमारी सरकार निरीह, भोली भाली देश की जनता को गरीबी की चक्की में
पीसी जा रही है। सरकार थोथा और खोखला विकास और आर्थिक सुधार का राग अलापे
जा रही है। अपने निज स्वार्थ के लिए अब भी देश के हित की बलि चढ़ाये जा रही
है।
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