लोकतन्त्र और चुनावी मायाजाल


रचनाकारः वासुदेव मंगल 




लोकतन्त्र में मतदान अपने शासकों को चुनने की पद्धति है। लेकिन किस शासक को मतदाता चुनेगा इसका अधिकार उसके पास (शासक) के पास नहीं है बल्कि विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रमुखों के पास है। स्वभाविक रूप से पार्टी प्रमुख उम्मीदवारों का चयन करते समय उनकी प्रतिबद्धता और जीतने की क्षमता का ध्यान रखता है। सिंगापुर में राजनीतिक पार्टियाॅं अच्छे लोगों को अपने साथ शामिल होने के लिए आमन्त्रित करती है लेकिन भारतवर्ष में स्वतन्त्रता प्राप्ति के छप्पन साल पश्चात् भी ऐसा नहीं होता। यदि किसी नौकरशाह को चुनाव में टिकट दिया जाता है तो या फिर कोई पद दिया जाता है तो यह उसकी पूर्व सेवाओं का ईनाम होता है उसकी योग्यता का सम्मान नहीं। 


अनुमान के मुताबिक लोकसभा के चुनाव में एक उम्मीदवार का खर्च एक करोड से पन्द्रह करोड रूपयों तक होता है। इस रकम का एक बडा हिस्सा वोट खरीदने में खर्च होता हैं। इसके अतिरिक्त दूसरे उम्मीदवारों को रिश्वत देने या किसी उम्मीदवार को अपने पक्ष में लाने या उसे मैदान से हटाने में भी काफी रकम खर्च होती है 

दरअसल भारतवर्ष में चुनाव एक उद्योग बन गया है। इसमें पार्टियाॅं करोड़ रूपये तक की कीमत में अपने टिकट भी बेचती है। राजनीति का कारोबार फायदे का कारोबार बन गया है। इस कारोबार मे, व्यापार करने वाला राजनीतिज्ञ बहुत कम निवेश करता है और बहुत ज्यादा लाभ कमाता है। 


14वीं लोकसभा के चुनाव में करीब तीन हजार करोड़ रूपये खर्च होने का अनुमान है जो राजनैतिक दलों और उम्मीदवारों द्वारा जुटाए जायेगें। इस देश में यह एक विडम्बना ही कहीं जायगी कि आयकर विभाग द्वारा चुनाव के दौरान न तो छापे मारे जाते है और न ही कुछ जब्त किया जाता है। सन् 1962 में कांग्रेस अध्यक्ष डी. सजीवैया ने कहा था कि उनकी पार्टी के बहुत से नेता जो कुछ नहीं थे, थोड़े समय में ही करोड़पति हो गए। 


राजनैतिक पार्टियाॅं चन्दा उगाही और भारी मात्रा में धन जुटाने के लिए अवैध उपायों से इनकार करती है लेकिन सच्चाई अपनी जगह है कि भारत में चुनाव लड़ना काफी खर्चीला काम हो गया है और कोई भी उम्मीदवार चुनाव में अपना पैसा खर्च करना नहीं चाहता है। उदारीकरण के बावजूद सत्ता गलियारे का महत्व अभी भी कायम है। आपराधिक चरित्र के व्यक्तियों को चुनाव में खड़ा नहीं करने की सोच से किसी पार्टी को गुरेज नहीं है। क्योंकि उनके लिए चुनावी राजनीति में जीतने वाले उम्मीदवार का ज्यादा महत्व है। आपराधिक वृत्ति वाले व्यक्यिों की सोच यह होती है कि एक बार विधायिका का सदस्य बन जाने के बाद उन्हें कुछ विशेषाधिकार हासिल हो जाते हैं जिससे वे तात्कालिक रूप से अपनी सजा या किसी कार्यवाही से बच जाते है। यदि वे सत्तारूढ़ दल में है तो कानून को अपनी मर्जी से बदल भी सकते है। राजनैतिक पार्टियाॅं जातिगत समीकरणों को सॅंभालकर रखने और इसी के आधार पर टिकट देने का ख्याल रखती है। इस कारण जातिवाद और धार्मिक कटट्रता दोनों को बढावा मिलता है। तकरीबन सभी पार्टियाॅ। इस गुनाह के लिए जिम्मेदार है। 


चुनाव के समय नेताओं का महत्वपूर्ण काम गडे मुर्दे उखाड़ना भी है। चुनाव प्रचार में फिल्म सितारों को उतारने से लेकर रोड़ शो करने या यात्रा करने तक पार्टियाॅं, वे सारे काम करती है जिनसे उनके चुनाव जीतने की सम्भावना बढ जाए। चुनाव लाउड स्पीकरों, कारों, रथ यात्राओं, रोड़ शो, भाषणों, टेलीविजन शो, नाटाकों और इलेक्ट्र्ोनिक साधनों व समाचार पत्र पत्रिकाओं के इस्तेमाल का मेला बन गया है। व्यापाक रूप से मतों की खरीद फरोक्त कडवी सच्चाई है। पर इन तमाम् खामीयों के बावजूद लोकतन्त्र में शासकों के चुनाव का इससे बेहतर रास्ता नहीं है। मतदाताओं का सामूहिक फैसला ही उम्मीदवारों की किस्मत तय करता है। यह कैसी विडम्बना है, भारत जैसे देश में? 

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