साॅंस्कृतिक राष्ट्रवाद बनाम राष्ट्रीय संस्कृति
रचनाकारः वासुदेव मंगल
सन् 2004 का लोकसभा चुनाव अक्षरशः सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय संस्कृति की दो विपरीत धारणाओं के बीच लड़ा जा रहा है। भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को जनम इसी वर्ष के आरम्भ में राष्ट्रीय स्वॅंय सेवक संघ ने अपने जयपुर अधिवेशन में एक प्रस्ताव द्वारा दिया। इनका कहना है कि राज्य और राजनीति धर्मनिक्षेप हो ही नहीं सकते। यदि प्रजा धर्म परायण है तो राज्य का धर्म परायण होना स्वाभाविक है। सन् 2003 के अन्त तक भारतीय जनता पार्टी हिन्दूवादी बनी रही किन्तु इस वर्ष राष्ट्रीय स्वॅंय सेवक संघ के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नारे के तुरन्त बाद उसने चोला बदल लिया है और अब वह सौ प्रतिशत धर्म निरपेक्ष हो गई है वैसी ही धर्म निरपेक्ष जैसी कि काॅंगे्रस या वामपॅंथी पार्टियाॅं है। आशा है सत्ता का स्वाद उसे राष्ट्रीय संस्कृति की थाली तक ले जायेगा। राष्ट्रीय संस्कृति, राष्ट्र को एकल समाज अथवा एकल धर्मनिष्ठा अथवा एकल धार्मिक संस्कृति के रूप में नहीं देखती। वह स्वॅंय एक संस्कृति है जो समाज के विविध घटकों को धर्मों और धार्मिक संस्कृतियों के विविधतापूर्ण अस्तित्व को स्वीकार करके, इन्हें सम्पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करती है तथा उनके बहुल स्वरूप को अपनी समृद्धि तथा अपने गौरव का लक्षण और चिन्ह मानती है। राष्ट्रीय संस्कृति शुद्धतः राजनीतिक होती है जिसका मन्त्र लोकतान्त्रिक आदर्श अर्थात स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुत्व है तथा जो जाति, धर्म, नस्ल, रंग, क्षेत्रियता अथवा प्रादेशिकता पर आधारित भेदभाव को किसी भी मात्रा में और किसी भी रूप में स्वीकार नहीं करती। राष्ट्रीय संस्कृति राष्ट्र के बहुलात्मक स्वरूप के अनुसार बहुलात्मक होती है। राष्ट्रीय संस्कृति राष्ट्रवादी नहीं वरन राष्ट्रनिष्ट अथवा शुद्धतः राष्ट्रीय राष्ट्रव्यापी और सर्वतः मानवीय होती है। उसमें निर्वाचन कोई जंग, युद्ध, समर अथवा संघर्ष नहीं होता महज् एक प्रतिस्पद्र्धा, प्रतिद्धंदिता, जनता के सामने अपना दृष्टिकोण और अपनी सेवांए पेश करने का पवित्र अवसर तथा उसकी होड होता है। राष्ट्रीय संस्कृति में निर्वाचन के समय विभिन्न दलों की मैत्री और निष्ठ भाषण-क्षमता में अन्तर नहीं आ सकता। आलोचना महज् समालोचना होती है। कटुता मिश्रित और व्यक्तिगत चरित्र आक्षेप नहीं हो सकती। राष्ट्रीय संस्कृति लोकतन्त्र के लिए माॅं के समान होती है। इसके ही दुध पर लोकतन्त्र पलता और पुष्ट होता है। इसमें घोलने वाला भले ही धर्मनिरपेक्षतावादी हो अथ्वा साॅंस्कृतिक राष्ट्रवादी, उसे लोकतन्त्र और जनता की राष्ट्रीय प्रभुता के आदर्श का मित्र नहीं कहा जा सकता।
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