जवाब कौन देगा? 


भारत के लोकतन्त्र को 56 साल हो गए हैं। 57वांॅ साल चल रहा है। भारत की लोकतन्त्रीय व्यवस्था संसदीय है, जिसमें दो सदन हैं राज्यसभा ऊपर का सदन है और लोकसभा निचला सदन है। लोकसभा के अब तक तेरह चुनाव हो चुके है। चैहदवीं लोकसभा के चुनाव का उत्सव चल रहा है। भारत के 66 करोड़ मतदाताओं को 543 संसद सदस्य चुनने है। इस चुनाव में लगभग 10 अरब रूपये खर्च होगें जो करीब 10 लाख इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन के जरिये कराये जायेगें। 

पिछले स्वतन्त्र भारत में 56 साल के सफर में हम कॅंहा तक पहॅंुचे है और आगे कहाॅं जा रहे है। भारत में व्यापार के उद्देश्य से बरतानिया से आई एक ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने 1700 से लेकर सन् 1947 के 15 अगस्त के पूर्व तक 250 साल तक पूरे भारत वर्ष में एक छत्र राज करके भारत का भरपूर आर्थिक और राजनैतिक शोषण किया और जाते जाते हिन्दू मुसलमानों को लड़ाकर भारत देश के दो टुकडे़ कर गए जिसका दुष्परिणाम आज तक दोनों देशों के निवासी भुगत रहे है। आज भी अंगे्रजों की फूट डालो और अपना निज का व्यापारिक स्वार्थ पूरा करों की तर्ज ब्रिटेन और अमेरिका अपनाए हुए है जो दो देशों भारत और पाकिस्तान में सीधा हस्तक्षेप किये हुए है। अपना उल्लू सीधा करने के लिए ये देश कभी भारत को प्रलोभन देते है तो कभी पाकिस्तान को। वास्तव में अप्रत्यक्ष रूप से अमेरिका ही अपना सिक्का येन केन प्रकारेण दोनों देशों पर जमाये हुए है। 

कुछ अहम सवाल है जो इस चुनाव में अब तक के शासकों से भारत की विशेषकर राजस्थान की जनता यानी मतदाता सीधे कर रहें है। पहीला चुनाव में टिकट पाने की पात्रता का आधार क्या रहा गया है? किसी को केन्द्रिय चुनाव समिति टिकट देती है तो किसी को आरक्षण कें नाम पर टिकट मिलता है। इसमें चाहे आदिवासी जातियां हो महिला हो या फिर अल्पसॅंख्यक। किसी को धन के बदले टिकट मिलता है तो किसी को वॅंशवाद के नाम पर। किसी क्षेत्र में विकल्प ही नहीं मिलता तो वहीं पर पूर्व प्रत्याशी को ही फिर से टिकट मिल जाता है। कहीं गठजोड़ हावी होता है तो कहीं बाहरी लोगों को लाने का बहाना होता है। इसके अलावा जातिवाद इतना गहरा गया है कि लोकतन्त्र की अवधारणा को ही धूमिल कर दिया गया है। सिर्फ जैसे तैसे चुनाव जीतने की लालसा में कार्यकर्ताओं की कीमत पर दोनों ही प्रमुख पार्टियाॅं सेवानिवृत अधिकारियों को आगे बढ़ा रहीं है। सारी लड़ाई सत्ता को हथियाने की रह गई है। 

इस बार जिन नामों की स्वीकृति हुई है, चाहे वह कांगे्रस की हो या भारतीय जनता पार्टी की, एक बात बहुत स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आ रही है कि कम से कम राजस्थान प्रदेश जो वर्तमान में भारत के अटठाईस राज्यों में, क्षेत्रफल की दृष्टि से सबसे बड़ा राज्य है, को तो यह पार्टियाॅं धर्मशाला ही मानने लग गई है। जिस तेजी के साथ राजस्थान से बाहर के लोगों को टिकट दिये जा रहे है, इस मुद्दे पर तो गम्भीर चिन्तन करने की आवश्यकता है। इसके मूल में तो भूमिका केन्द्रिय चुनाव समितियों की ही बताई जाती रही है। इसका सीधा सा अर्थ है कि राजस्थान के समर्पित कार्यकत्र्ताओं के कद को और राजस्थान के नेताओं के कद को छोटा करते जाना ही केन्द्र का स्वभाव बन गया है। राजस्थान बाहरी प्रत्याशियों के लिए शरणस्थली बनता जा रहा है। अपने मूल राज्यों में लड़ने की हिम्मत नहीं करने वाले बलराम जाखड़, राजेश पायलेट व बूटासिंह सरीखे नेताओं को काॅंगे्रस ने, राजस्थान से लोकसभा चुनाव लड़ने की अनुमति देकर यह परम्परा डाली। जनतादल चैधरी, देवीलाल को लाया। अब भारतीय जनता पार्टी ने फिल्म जगत से ग्लैमर खो चुके अभिनेता धर्मेन्द्र को बीकानेर सेसदीय सीट पर चुनाव लड़ने हेतु टिकट दे दिया है। उसकी सूची में सुशीला लक्षमण और बाबा चांदनाथ जैसे नाम भी है। अनुभव बताते है कि बाहरी प्रत्याशियों का ज्यादा कार्यकाल दिल्ली में बीतता है। राजस्थान से उनका नाता नाम मात्र का रहता है। केरल, बिहार, पश्चिमी बॅंगाल जैसे राज्यों में तो बाहरी प्रत्याशियों को टिकट देना किसी भी पार्टी के लिए सम्भव नहीं प्रतीत होता। ऐसा लगता है कि हमारे नेताओं को तो पंचायत समिति और जिला परिषद् से ऊपर जाने लायक माना ही नहीं जाता। इनमें भी बड़ा उनको माना जाता है जो कि धन देकर टिकट मांगते है। 

दोनों राष्ट्रीय पार्टियों से हमें यह अपेक्षा नहीं है कि वे खारिज नेताओं को अभिनेताओं को राजस्थान में लाकर पटक दें। क्या यह राजस्थान के वरिष्ठ नेताओं का अपमान नहीं है? मतदाता चाहते है। कि वे ऐसा व्यक्ति चुने जिस पर वे विश्वास कर सकें और अपने से जोड़कर पहिचान सके। उसकी आवाज दिल्ली में निर्णय करने वाले मन्चों पर सुनी जाए। 

यह भी सत्य है कि, राज्य का विकास पिछले छप्पन सालों में नहीं के बराबर ही हुआ है और यह भी सत्य है कि छप्पन सालों में संसद में बैठकर राष्ट्रीय धरातल पर चिन्तन करने वाले नेता हमारे यहाॅं आज भी नहीं है। जो सदस्य 3-3 या 4-4 बार संसद में जा चुके है, उन्होंने भी वहां राष्ट्रीय मुद्दों पर अपनी कोई पहचान नहीं बनाई। इसका दोष भी किसको दिया जाय? अब तो हालात यहां तक हो गए कि विधानसभा की सीटों के लिए भी केन्द्र की और ताकते रहते है। क्या गिरधारीलाल भार्गव, शीशराम ओला, रासासिंह रावत, भैरूलाल मीणा, गिरिजा व्यास या सोना राम जैसे कई बार रह चुके निवर्तमान ससंद सदस्य इस प्रश्न का उत्तर दे सकते है कि आज तक राष्ट्रीय मुद्दों पर तैयार क्यों नहीं हुए? राजस्थान के लिए दिल्ली में उन्होंने क्या योगदान दिया? कब ऐसा दिन आयेगा कि राजस्थान के लोग राजस्थान के भविष्य की कमान अपने हाथों में लेंगे और बाहरी लोगों को यहाॅं टिकट दे पाना असम्भव हो जाएगा। 

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