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‘‘ब्यावर’ इतिहास के झरोखे से.......

✍वासुदेव मंगल की कलम से.......
छायाकार - प्रवीण मंगल (मंगल फोटो स्टुडियो, ब्यावर)


 

25 जून 2023 को कर्नल चार्ल्स जॉर्ज डिक्सन, ब्यावर के संस्थापक की 166वीं पुण्य तिथी पर विशेष
लेख - वासुदेव मंगल, ब्यावर
28 मई 1857 को डूँगजी - जवाहरजी ने नसीराबाद छावनी लूट ली। नसीराबाद छावनी के फौजी और सिविलियन भागकर ब्यावर आकर डिक्सन को कहने लगे। जँहापनाह लुट गए... जँहापनाह लुट... गए।
यह सुनकर ड़िक्सन यह सोचकर सदमें में आ गए कि अगर नसीराबाद छावनी लुट ली गई है तो अगल नम्बर ब्यावर छावनी का है क्योंकि ब्यावर ही सबसे पास हैं अतः ड़िक्सन बिमार पड़ गए।
हाँलाकि तत्कालिन वैद्य गिरवर रामजी शर्मा ने उनका माकूल ईलाज किया परन्तु वे ठीक नहीं हुए। उनको इतना गहरा सदमा लगा कि 25 जून सन् 1857 को उनका शहर रेजिडेन्स पर अजमेर गेट के अन्दर वाले नोहरे में निधन हो गया। ड़िक्सन के निधन से अजमेर ब्यावर का सारा प्रशासन सक्ते में आ गया। अतः उनके निधन का हलकारा अजमेर, ब्यावर, नसीराबाद और आबूरोड़ करवा दिया गया। सब जगहों से सरकारी अमला ब्यावर आया। फौजी और सिविल स्टाफ। ड़िक्सन बडे़ ही नेक दिल सहृदय इन्सान थे। वह सर्वधर्म सम्भाव के प्रणेता थे और अपनी जनता प्रजा के प्रिय नेता थे। उनका अचानक, असमय जाना ब्यावर अजमेर की अपूरणीय क्षति थी। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के वे विश्वसनिय अधिकारी थे।
उनके अन्तिम संस्कार की तैयारी की जाने लगी। उनकी बेगम साहिबा चाँद बीबी मौजूद थी। बेगम साहिबा अपनी हवेली में रहते हुए 1875 में फोत हुई। उनकी वसियत के मुताबिक उनको अजमेरी दरवाजे बाहर पीर साहिब की दरगाह के उत्तरी दिशा में दफनाया गया था जहाँ पर टोम्ब ऑफ बीबी ड़िक्सन आज भी उनकी यादगार अवस्थित है।
अतः ड़िक्सन साहिब के लम्बाई के नाप का ताबूत बनाया गया। ताबूत में ड़िक्सन को फौजी लिबास में सुलाया गया। ताबातू पर सलीब का निशान बनाया गया। ड़िक्सन का छज्जे वाला टोप व उनके तमगें ताबूत पर रक्खे गए। चूँकि डिक्सन बंगाल आर्टलरी रेजिमेण्ट के कर्नल रेन्क के ऑफीसर थे। अतः उनके पार्थिव शरीर के ताबूत को तोप गाड़ी पर रक्खा गया।
अतः फनरल सेरेमनी का जुलूस रूपी काफिला ड़िक्सन साहिब के अजमेरी गेट के अन्दर से दक्षिण दिशा में शहर बाजार से आरम्भ हुआ। सबसे आगे आर्टलरी बैण्ड मातमी धुन बजाते हुए आगे आगे चल रहा था। उसके बाद आर्टलरी जवान ड़िक्सन साहिब के जनाजे वाली गाड़ी को खींचते हुए चल रहे थे। और फिर उनकी प्रिय प्रजा जनाजे के पीछे पीछे चल रही थी। करीब उस समय दस हजार लोग उनके जनाजे में शरीक हुए थे। सबके चेहरे गमगीन क्योंकि उनका मसिहा जो चला गया था।
यह काफिला अजमेरी गेट बाजार, फत्तेहपुरिया बाजार, पंसारी बाजार होता हुआ बड़े ही एतराम के साथ बाजार की मुख्य चौपाटी से पश्चिम दिशा में स्थित पाली बाजार होता हुआ चाँग गेट बाहर से उत्तर दिशा वाली हाईवे वाली रोड़ पर होता हुआ आगे जाकर हाईवे रोड़ के पूरब दिशा मोड़ से होता हुआ छावनी चौराहे से उत्तर दिशा वाले मार्ग से होता हुआ, छावणी पार ईसाईयों के कब्रिस्तान में ले जाया गया।
वहां पर ड़िक्सन साहिब के ताबूत को एक चबूतरी पर रक्खा गया। बारी बारी से सभी ओहदेदारों ने और शहर के गणमान्य व्यक्तियों ने उनके पार्थिक शरीर पर पुष्प चक्र रखकर अन्तिम श्रद्धान्जलि आर्पित की। पुष्प चढ़ाकर श्रद्धा सुमन दी गई। यह कार्यक्रम सम्पन्न होने के बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने उनकी जगह किसी माकूल अधिकारी की घोषणा कर उनके पार्थिक शरीर को बड़े अदब एतराम के साथ ईसाई धर्म के विधि विधान के साथ दफनाया गया। उनकी अन्तयेष्टी के बाद उसी जगह उनकी याद में मजार बनाई गई जो आज भी महफूज है। आज जनता जनार्दन उनकी छतरी पर धोक लगाती है और आस्था रूपी सजदा करती है। हॉलाकि उस बात को आज एक सौ छासठ वर्ष बीत गए लेकिन उनका प्यार और आदर्श आज भी ब्यावर की जेनेरेशन के हृदय में उनकी मोहब्बत ताजा तरीन बनी हुई है। तो ऐसे थे हमारे राजा जिन्होंने ताउम्र अपनी प्रजा के सेवक बनकर प्रजा की सेवा की। प्रजा के सुख दुख में हमेशा प्रजा के साथ रहे।
इसलिये शहर की और गांव की प्रजा आज भी उनको देवता मानकर पूजती है। हांलाकि उनकी छतरी को (आस्था रूपी मार्बल के खुले झरोखे) को जिसकी चारों दिशाएं प्राकृतिक थी। यहां पर हर आस्थावान उनकी चबूतरी पर पुष्प रखकर या अगरबत्ती जलाकर अपनी आस्थ का ईजहार करता था। सन् 1885 से लेकर 1972 तक जब तक यह छतरी कायम रही सित्यासी साल तक। हर मजहब का व्यक्ति अपनी आस्था के अनुसार छतरी के अपनीे ईष्ट की दिशा की तरफ मुँह कर ईबादत करता। सूर्य को मानने वाले पूरब दिशा की ओर मुंह करके चन्द्रमा को मानने वाले पश्चिम दिशा की ओर मंुह करके, शंकर भगवान को मानने वाले उत्तर दिशा की ओर मुंह करके और महा मृत्युन्जय देवता को मानने वाले आस्तिक दक्षिण दिशा की ओर मुंह करके अपनी प्रार्थना करते थे।
यहां तक की शहर के लोग अपनी दुकान खोलने से पहीले प्रातःकाल ड़िक्सन साहिब की चबूतरी पर दुकान की चांबियां रखकर छतरी को धोक लगाकर चाबी ले जाकर दुकान खोलते थे। यह क्रम जब तक छतरी कायम रही तब तक शहर के लोगों का बराबर बना रहा।
इसी आस्था के चलते ब्यावर अतीत में ऊन ओर रूई के व्यापार में राजपूताना का मेनचेस्टर बना हुआ था। यह प्रश्न आज भी जनरल नालेज के आई ए एस, आई पी एस और पी एच डी के प्रश्न पेपर में पूछा जाता है।
यह तो हुआ यूँ कि 1881 के सितम्बर माह में क्रान्तिकारी सन्यासी स्वामी दयानन्द सरस्वती ने पन्द्रह दिन ब्यावर मंे प्रवास किया अपनी आर्य धर्म के प्रचार प्रसार के लिये। तब उनको इस छोटे से सुन्दर शहर की आर्चीटेक्ट बसावट बहुत पसन्द आई। तब उन्होंने अपने शिष्य श्याजी कृष्ण वर्मा ग्रेट पेट्रोयट से पूछा श्याम तू यह बता कि इस सुन्दर शहर को सभी धरम की आस्था पर तरकीववार बडे़ ही पच्चीकारी ढंग से बसाया गया हैं किस फरिश्ता का काम हैं मेरे हृदय में उसके प्रति आस्था उमड़ रही है। अतः इनका कोई स्थान बना हुआ हो तो मैं वहां पर जाकर आस्था का ईजहार कर सकूँ। श्यामजी ने उनकी मजार के बारे में बताया जो ईसाईयों के कब्रिस्तान में बनी हुई थी। परन्तु स्वामीजी ने वहाँ जाने से तो अपनी अईच्छा जाहिर की कारण कब्रिस्तान था इसलिये ओर श्यामजी को आदेश दिया कि श्याम तू एक काम कर इस फरिश्ते की शहर की मुख्य चौपाटी पर आस्था का एक खुला झरोखा बना जिस पर हर आस्थावान सजदा कर सके अपने मजहब के अनुसार। अतः यह भागीरथी काम हमारे उस समय के महान् क्रान्तिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा ने किया। यहां पर यह प्रश्न उठना लाजमी है कि वे तो अंग्रेज थे लेकिन उनका मानवता रूपी गुण उनके मजहब से बहुत ऊपर था। अतः इसी आदर्श के कारण वे स्काटलेण्ड के एडिबर्ग के होते हुए भी इस क्षेत्र की उस समय के निवासियों की मासूमियत के कारण और यहां की भौगोलिक संरचना हुबहू अपने मादरे वतन एडिनबर्ग की प्राकृतिक संरचना की तरह की होने के कारण उन्होेंने इस स्थान को सिविल कोलोनी बसाने का मानस बना लिया था। इसीलिये इस धरती को तस्लीम कर अपने देश के जैसा हूबहू विवेयर सिटी का निर्माण किया जिसमें उनको अपना मादरे वतन दिखाई देता रहे। और अन्त में वे इस वतन की मिट्टी में ही दफन हो गए। अतः जब तक यह आस्था का झरोखा कायम रहा तब तक यह शहर फलता-फूलता रहा, जो राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय पहचान बना चुका था।
इस शहर की सुरक्षा के लिये क्रॉस की आकृति पर सुन्दर परकोटा बनाकर शहर के नागरिकों के जान माल की माकूल व्यवस्था की।
इस शहर का हुबहू स्काटलेण्ड की प्राकृतिक भोगोलिक संरचना की। वो ही चरागाह, वो ही सैरगाह, वो ही जंगल, वो ही पहाड़ियां और वे ही चारों ओर के तिजारती मार्गों का केन्द्रिय स्थल। है न विशेष बात शहर की।
आज हमारे संस्थापक की एक सौ छांसठवी पुण्य तिथी पर लेखकर का शत् शत् नमन्।
लेखक का यहाँ के स्थानीय हुक्मरानों से निवेदन है कि यहाँ का टाऊन हाल तो हेरीटेज बनाया जा रहा है जो एडिनवर्ग के टाऊन हाल के नक्श कद पर बनाया हुआ है 1910 में। परन्तु ब्यावर जो कोई जमाने में मेरवाड़ा स्टेट का मुख्यालय हुआ करता था। अब बडे जतन के बाद इस ईलाके को राजस्थान प्रदेश का डिस्ट्रीक्ट का ओहदा घोषित किया गया है। अतः यहाँ के नगमे निगारों द्वारा जिला भी हेरीटेज बनाया जाना चाहिये। लेखक की उनसे हाथ जोड़कर प्रार्थना है। देखते है आगे आगे होता है क्या?
सभी नागरिकों का ब्यावर जिला बनने पर लेखक द्वारा हार्दिक अभिनन्दन। सभी जन इसको हेरिटेज जिला बनाने में सक्रिय सहयोग करेे।

 

 
इतिहासविज्ञ एवं लेखक : वासुदेव मंगल
CAIIB (1975) - Retd. Banker
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