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‘‘ब्यावर’ इतिहास के झरोखे से.......

✍वासुदेव मंगल की कलम से.......  ब्यावर सिटी (राज.)
छायाकार - प्रवीण मंगल (मंगल फोटो स्टुडियो, ब्यावर)

27 फरवरी 2024  -   93वीं शहादत पर विशेष  - सशस्त्र क्रांति के ध्वज वाहक-आजाद
प्रस्तुतकर्त्ता व रचियता - वासुदेव मंगल, ब्यावर

भारत में सशस्त्र क्रांति के ध्वज वाहकों में अमर शहीद चन्द्रशेखर आजाद का नाम जनमानस में अमिट रूप से अंकित है। ब्रिटिश शासन के अकथनीय अत्याचारों के विरूद्ध आम लोगों के दिलो-दिमाग से भय और आतंक को मिटाने और एक इन्कलाब का माहौल तैयार करने के लिए आजाद जैसे देशभक्तों को हथियार उठाने पडे थे।
जीवन-परिचय
यह मध्यप्रदेश के लिए गौरव की बात है कि अमर शहीद चन्द्रशेखर आजाद ने इसी सरजमी पर अपनी आंखें खोली। उनका जन्म 23 जुलाई 1906 को झाबुओं जिले के भावरा गांव में हुआ था। उनके पिता सीताराम तिवारी स्वाभिमानी व्यक्ति थे। पिता से चन्द्रशेखर ने दुसरों पर जुल्म न करने और किसी भी कीमत पर जुल्म न सहने का सबक सीखा, जिसे वे जीवनपर्यन्त नहीं भूले।
कैसे पड़ा ’आजाद‘ उपनाम
स्वतंत्रता के महासमर में कूदने में इस महारथी ने बहुत देर नहीं लगाई। जब 1921 में गांधी ने असहयोग आंदोलन आरंभ किया तो छात्र चन्द्रशेखर उसमें शामिल हो गए। उनकी उम्र तब 14-15 वर्ष ही थी। जाहिर है कि उन्होेनंे मुख्य भूमिका निभाई होगी। इसलिए वे गिरफ्तार कर लिए गए। सेन्ट्रल जेल में उन्होेंने अपना नाम आजाद, निवास जेलखाना और पिता का नाम स्वाधीन बताया था यह सब जानते है। उस अल्प-‘व्यस्क किशोर को 15 बेंतों की सजा दी गई। उनकी चमड़ी उधेड दी गई। जिसके निशान उनके शरीर पर अंत तक बने रहे। परन्तु वीर बालक चन्द्रशेखर रोने-पीटने या आहें भरने के बजाए हर बेंत पर ‘महात्मा गांधी की जय’ उद्घोष करता रहा। इसी बहादूरी के लिए संभवतः श्री प्रकाश या संपूर्णानंद नेे उन्हें ‘आजाद’ का उपनाम दिया गया। बाद में काशी में एक सार्वजनिक सभा में आजाद का वीरोचित सम्मान किया गया था।
देशभक्ति की भावना
उनके हृदय में देशभक्ति का दीप प्रज्जवलित हो चुका था। देश की स्वतंत्रता के लिए उन्होंने अपना तन-मन समर्पित कर दिया। शीघ्र ही वे क्रांतिकारी संगठन के अत्यंत विश्वसनीय, तेजस्वी, साहसी, धैर्यवान और बेजोड संगठनकर्ता के रूप में स्थापित हो गए।


उल्लेखनीय भूमिका
इसके बाद की जो भी महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक घटनाएं घटीं, उन सभी में चन्द्रशेखर आजाद की उल्लेखनीय भूमिका रही और हर बार वे पुलिस की आंखों में धूल झोंक कर सारे भारत में मैराथन दौड़ लगाते रहे। अपनी अद्भुत सूझबूझ से क्राांतिकारी आंदोलन को वे ऊर्जा प्रदान करते रहे। अपने खून-पसीने से क्रांति की लौ जला रहे। काकोरी कांड से फरार होकर आजाद झांसी आ गए और फिर इलाहाबाद में, अर्ल्फेंड पार्क में शहीद होने तक झांसी ही उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों का मुख्यालय बना रहा।
शहादत
अपने आज्ञातवास के दौरान आजाद आगरा, दिल्ली, केानपुर, गवालियर में गोला बारूद बनाने के कारखानों का संचालन करते रहे। अंततः मुखबिर की सूचना पर चन्द्रशेखर आजाद इलाहाबादके अल्फ्रेड पार्क में घेर लिए गए। वे अकेले ही अपनी पिस्तौल से पुलिस का मुकाबला करते रहे। अंतिम गोली से उन्होंनंे अपने कहें अनुसार अंग्रेजों के हाथों पडने से आत्मोसर्ग बेहतर समझा। दिनांक 27 फरवरी, 1931 को क्रांति के ये जांबाज सेनानी शहीद हो गए। उन्होंन अपना ये कहा सच कर दिखाया- ‘दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेगें, आजाद रहे है, आजाद ही रहेंगे’।

27.02.2024
 
 
इतिहासविज्ञ एवं लेखक : वासुदेव मंगल
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