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‘‘ब्यावर’ इतिहास के झरोखे से.......

✍वासुदेव मंगल की कलम से.......  ब्यावर सिटी (राज.)
छायाकार - प्रवीण मंगल (मंगल फोटो स्टुडियो, ब्यावर)


भारत की स्वतन्त्रता के समय का आर्थिक चित्रण (सिनेरियो)
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सामयिक लेख (करेन्ट अफेयर): वासुदेव मंगल, ब्यावर (राज).
आज के सित्तेत्तर वर्ष पहले की भारत देश की आर्थिक स्थिति का चित्रण लेखक भारत की आजादी के समय का, आज की तीसरी, चौथी पिढी को बता रहे है आपको जानकर ताज्जुब होने लगेगा कि क्या उस समय भारत देश की आर्थिक स्थिति जीवन निर्वाह की स्थिति इतनी सर्वाेत्तम रही थी अवाम की। वास्तव यह सच्चाई जानकर आज के बच्चों को विश्वास नहीं होगा कि क्या उस समय की जिन्दगी इतनी सरल और सुनहरी थी परन्तु यह सच है लेखक ने बीसवीं सदी के पाँचवें दशक का वो जमाना देखा ही नहीं है अपित् जीया भी है अर्थात् उस जमाने का उपयोग किया है।
आज के अस्सी बरस पहले मानव की आवश्यकताएँ सीमित थीं। इच्छाएँ बहुत कम थी रहन सहन का स्तर सरल था, सादा था। ज्यादा तड़क- फड़क नहीं थी। बिलासिता का जीवन नहीं था। रोजगार भरपूर था। अतः मुद्रा की क्रय शक्ति भरपूर थी। वस्तु की माँग के अनुपात में आपूर्ति भरपूर थी कहीं भी किसी भी स्तर पर जीवन में बनावटीपन नहीं था। लोगों में परस्पर प्रेम, भाईचारा था। सहयोग की भावना थी। धार्मिक सहिष्णुता थी। संयुक्त परिवार थे। लेखक ने आजादी के समय का जो नजरिया देखा है हूबहू उसका चित्रण आर्थिक जगत का कर रहे है।
उस वक्त मुद्रा की स्थिति यह थीः- एक रुपये मे सोलह आने होते थे और चौंसठ पैसे होते थे। पैसा ताँबे का गोल बड़ा या फिर छेदवाला होता था। अधन्ना, एक आना, दो अन्नी पित्तल की चौकोर या फिर सुदर्शन चक्र में थी। चवन्नी, अठ्ठन्नी और एक रुपया गोल बडा चाँदी के थे। चाँदी की चवन्नी गोल छोटे आकार में अठ्ठनी चाँदी की गोल मध्यम आकार में और चाँदी का कलदार बड़े गोल आकार में थे। कपड़े का माप गज गिरह में था। खाने पीने की वस्तुएँ तोल में एक सेर, आधा सेर, पाव, आधा पाव, छँटाक के मुद्रा भाव मंे। अन्य वस्तुए गज, फुट, इन्च में। तो इस प्रकार का आर्थिक चक्र या सिस्टम था उस समय में। इन सब वस्तुओं का विनिमय लेनदेन क्रय-विक्रम मुद्रा के अनुपात में होता था जिनके अलग अलग वस्तु के अलग अलग भाव होते थे जो निश्चित होते थे।
अब लेखक उदाहरण से समझाते है इस पद्धति या सिस्टम को। बहुत सस्तीवाडा था मुद्रा की क्रय शक्ति असीमित थी। उदाहरण के तोर पर एक रुपये के बारा सेर मोठ, आठ सेर मूँग, चार सेर गेहूँ। एक आने का एक सेर दूध, दो आने एक सेर दही पाँच रुपये का एक सेरे देशी घी, बारह आने की एक सेर शक्कर, पाँच रुपये मे गूड की भेली, दो आना तोला चाँदी, पचास रुपये में सोने की गिन्नी इत्यादि एक आने का एक मोतीचूर की नुक्ती का बड़ा सारा लड्डु। आठ आने मे एक सेर शक्कर का बूरा। उस समय डालडा घी नहीं था। उस समय चाय नहीं थीं। मजदूरी (पगार) बहुत सस्ती थी, पाँच रुपये महीने के मिलते थे। घी दूध की नंदियाँ बहती थीं। शुद्ध हवा, शुद्ध जल, शुद्ध खाना सब कुछ शुद्ध था। मिलावट बिल्कुल नही थी। प्रत्येक वस्तु की आपूर्ति खूब थी। अतः जीवन बहुत सीधा और सरल था। करीब करीब स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग उपयोग होता था। यह काल 1955 तक ठीक ठाक था। जब तक प्रत्येक जीन्स (वस्तु) के निश्चित भाव स्थिर थे । 1956 में सारा सिस्टम देश का बदल गया। दशमलव प्रणाली चलन में लागू हो गई। हर क्षेत्र का पैमाना बदल गया। मुद्रा का पैमाना बदल गया। एक रूपये के सो पैसे हो गये। वो भी कतीर के, एक पैसा, दो पैसा, तीन पैसा, पांच पैसा, दस पैसा, बीस पैसा, पच्चीस पैस, पचास पैसा और एक रूपया। अतः सन् 1956 से जीन्सों की मुद्रा के भावों में स्थिरता खत्म हो गई। शनैः शनैः मँहगाई शुरु हो गई। आबादी, जनसंख्या तेजी से बढने लगी। मार्केट में वस्तुओं की माँग और पूर्ति में असमान संतुलन होता चला गया। वस्तुओं की पूर्ति में कमी होती चली गई। माँग बराबर बढ़ती गई परिणामतः मुद्रा का निश्चित मात्रा से अधिक प्रसार होने लगा। मुद्रा का वस्तु के अनुपात में अधिक प्रसार होने से मुद्रा का निरन्तर अवमूल्यन होता गया। अतः वस्तु का माप, तोल, आकार तो नहीं रहा और वहीं वस्तु कई गुणा अधिक मुद्रा में क्रय की जाने लगी। जिससे हर वस्तु दिन पर दिन महंगी होती चली गई। यहीं हाल, भाड़ा, किराया, मजदूरी, वेतन का होता चला गया। नतीजा यह हुआ कि हर स्तर पर माँग और पूर्ति का चक्र बिगड़ता चला गया।
समय के साथ साथ फैशन का जमाना आ गया। अतः समाज में समुदाय में सरलता और सादगी की जगह दिखावा और तड़क-फडक ने जगह ले ली। जिससे मिलावटीपन, नकलीपन और दिखावटी फैशन, शादी-विवाह और अन्य पारिवारिक, सामाजिक समारोहों में, उत्सवों मे जगह ले ली। संयुक्त परिवार टूटते गए। एकाकी परिवार का जमाना आ गया। परस्पर परिवारों में प्रेम मेलजोल की जगह एकाकीपन नीरसता और जीवन में शुन्यता देने लगी है। ब्याह-शादी और अन्य उत्सवों में रस्मों व रीति रिवाजों में औपचारिकताएं मात्र रह गई। प्रेम और भाईचारे के सबन्ध अब सौदों में बदलने लगे। हर जगह बारगेन यानि सौदेबाजी होने लगी है हर स्तर पर। करीब करीब अपनापन समाप्त हो गया है। कुटुम्ब में आना जाना ओपचारिकता मात्र रह गई। सात जन्मों का, कसमो का बन्धन टूटने लगा है। कहीं भी स्थाईत्व नजर नहीं आता।
आज उस जमाने की तुलना करें तो 10 ग्राम शुद्ध सोना उस जमाने के मुकाबले 73-74 हजार रुपये जो अस्सी साल पहले मात्र पचास रुपये में आता था।
देशी घी पाँचसो रुपये से भी अधिक कीमत का वो भी मिलावटी जो पांच रुपये में एक किलो (सर) शुद्ध आता था।
दूध 50 रुपये लीटर जो उस समय एक आने में आता था। दही 100 रुपये अधिक का एक किलो जो दो आने मे आता था। शक्कर 50 रुपये किलो जो बारह आने मे एक सैर आती थीं। गेहूं का आटा तीस रुपये का एक किलो जो चार सेर एक रुपये के आते थे। बेसन 100 रुपये किलो मूंग 100 रुपये किलो जो आठ सेर आते थे एक रुपये के मोठ 80 रुपये किलो जो एक रुपये के 12 सर आते थे अब तो मनुष्य सस्ता है। जिसकी कोई कीमत नहीं है कद्र नहीं है। अब क्या जमाना आ गया है। मात्र रिमोट से मशीन के रोबोट काम करने लगे है हर जगह। तो आप अन्दाज लगा ले कि यह दुनियाँ कहाँ खड्डे में जायेगी। क्या इसी को विकास कहते है। यह तो सरासर विनाश है सब स्तर पर हर जगह। भगवान ही मालिक है। भगवान आज के मनुष्य (मानव) को सदबुद्धि दे यह ही लेखक की भगवान से प्रार्थना है।
अब तो ग्लोबल मार्केट हो गया है। अतः गलाकाट वस्तुओं की प्रतिस्पर्धा हो गई है। तोल मोल का कोई भाव नही है। कोई वस्तु की क्वालिटी नहीं है। कोई शुद्धता नहीं है कोई स्थाईत्व नहीं है। कोई भाव ताब नहीं है। अतः सब कुछ बनावटी हो गया है।

17.07.2024
 
 
इतिहासविज्ञ एवं लेखक : वासुदेव मंगल
CAIIB (1975) - Retd. Banker
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