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भारत में आम चुनाव का वृतान्त - भाग 1    भाग 2
लेखक - वासुदेव मंगल, ब्यावर


लोकतन्त्र का दस्तूर है कि सशक्त लोकतन्त्र के दो प्रमुख राजनैतिक पार्टी का होना अति आवश्यक है। मात्र एक सशक्त पार्टी फासिस्ट होकर तानाशाह हो जाती है जिससे लोकतन्त्र खतरे में पड़ जाता है। यह पार्टी शासन में रहते हुए एक तरफा फैसले करती है. जो देश के लिए घातक होते हैं जैसा कि वर्तमान में भारत देश में हो रहा है जो देश के विकास मे अड़चने पैदा करती है। यह लोकतन्त्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। भारत देश की मूल संस्कृति संविधान प्रदत्त लोकतान्त्रिक समाजवाद धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है। भारत सदियों से विविधता मे एकता वाली रही है जो माला मे पिरोये हुए मणियों के समान है। देश तो एक है लेकिन निवासी भिन्न भिन्न धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्रों में रहते हुए एक देश भारत देश का प्रतिनिधित्व करते हुए सदियों से एक साथ रहते चले आ रहे है। अपने अपने उत्सव त्यौहार बढ़ी उमँग उल्लास से मनाते हुए बड़े प्रेम मेलजोल से अपना अपना स्वतन्त्र कारोबार करते हुए रहते चले आये है तो यह है हमारे देश भारत देश के संस्कृति की विशेषता। अगर यह संस्कृति अक्षुणन रहती है तो यह विश्वगुरु है नहीं तो यह भी उपनिवेश की संज्ञा से इंगित किया जाने लगेगा। अतः हमारे शासक दल के कर्णधारों, नगमा निगारों को इस संवेदनशील मुद्दे पर एक राय होकर चलने की जरूरत है। देश की पतवार कच्चे धागों के समान है जो अगर एक बार टूट जायेगी तो फिर जुड़ना मुश्किल होगी। यह कोई राजतन्त्र तो है नही लोकतन्त्र है। अर्थात् जनता का - जनता द्वारा - जनता के लिये। अतः इस थीम को कायम रखा जाता अति आवश्यक है नहीं तो यह देश छिन्न भिन्न हो जावेगा। अतः बहुत ही ठण्डे दिमाग से सोचकर इसमें परिवर्तन करने का कदम उठाना होना चाहिये। जोश ही जोश में कहीं होश ना खो बैठे सत्तादल। शासन की इस मौलिक व्यवस्था में एक दल द्वारा अपनी मनमर्जी से आमूलचूल परिवर्तन करना देश की एकता के लिये जोखिम भरा हो सकता है।
भारत मे सही मायने मे लोकतन्त्र 1975 मे दृष्टिगोचर हुआ जब लोकतन्त्र की मूल आत्मा पर चोट की गई और अब पुनः इसी प्रकार का वातावरण बनाया जा रहा है। अतः इस बात से सजग रहने की जरूरत है।
अतीत में भारत में भी स्वतन्त्रता से लेकर एक ही काँग्रेस पार्टी का एकाधिकार राज होने से यह निरंकुश और तानाशाह हो गई। नतीजा पूरे देश मे एक आन्दोलन हुआ तब इसका विकल्प जनता दल छठे आम चुनाव में उभरकर सत्ता में आया। परन्तु भिन्न भिन्न विचारधारा के लोगों का समूह गठबन्धन स्वार्थ की राजनीति के कारण टिक नहीं सका और तीन वर्ष की अन्य अवधि में ही बिखर गया। सन् 1980 मे एक सशक्त पार्टी दूसरी भारतीय जनता पार्टी नाम से कांग्रेस पार्टी के विकल्प के रूप में उभरकर जरूर आई जिसने सन् 1989 में केन्द्र मे सत्ता सम्भाली। यहाँ पर यह वर्णन करना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि इनके एक प्रधानमन्त्री विश्वनाथ प्रताप सिंह कमण्डल जाति का राग देश मे छेड़ दिया तो अन्य दूसरे साथियों ने मन्दिर मस्जिद धार्मिक राग आलापना शुरु कर आपस में ही उलझने गया नतीजा यह हुआ कि 1991 में पुनः केन्द्र में चुनाव में की घोषना करनी पड़ी। यह दूसरा चुनाव था केन्द्र मे जो मध्यावधि था। सन् 1980 तक तो केन्द्र और राज्यों में सात चुनाव तो तैतीस वर्ष की अवधि तक तो देश में साथ साथ हुए। यहां पर सन् 1984 मे एक घटना केन्द्र मे अक्समात् घटित हुई कि तत्कालिन प्रधान मन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी की उनके ही अंग रक्षको द्वारा हत्या कर दी गई तब केन्द्र मे आकस्मिक चुनाव कराना आवश्यक हो गया 1984 में। अतः केन्द्र में 1984 मे आठवा चुनाव कराया गया जिसमंे राजीव गांधी तीन चौथाई बहुमत से विजयी होकर सत्ता में आये। अतः यहाँ से केन्द्र में पांच साल की अवधि चुनाव की भिन्न हो गई। परन्तु राज्यों मे चुनाव की पाँच साल की अवधि 1985 वही कायम रही। यहां पर केन्द्र और राज्यों के चुनावों में अन्तर हो गया। अतः 1984 में चुनाव केन्द्र में हुआ जबकि राज्यों में आठवा चुनाव 1985 में हुए हालांकि इस कसमकस में केन्द्र में दो बार मध्यावधि चुनाव मजबूरी में कराने पड़े पहीला मध्यावधि चुनाव 1980 में और दूसरा मध्यावधि चुनाव 1991 में और दोनों ही बार विपक्ष की आपसी लड़ाई के कारण। लेकिन एक बात मुखर होकर जो उभरी वह यह थी कि भारतीय लोकतन्त्र को दूसरी सशक्त राजनैतिक भारतीय जनता पार्टी के रूप मे मजबूत कांग्रेस पार्टी का विकल्प आधार मिल गया। इससे भारत का लोकतन्त्र मजबूत हो गया। अतः केन्द्र में और राज्यों में दो चुनाव का अन्तर हो गया। केन्द्र में वर्तमान में सन् 2024 में अठारहवाँ चुनाव होगा जबकि राजथान प्रदेश में वर्तमान 2023 में सोलहवाँ चुनाव होगा। जो सन् 1980 से लगातार चल रहा है।
केन्द्र में 1952, 1957, 1962 1967, 1972, 1977, 1980, 1984, 1989, 1991, 1996 1998, 1999, 2004, 2009, 2014, 2019 इस प्रकार सतरह बार चुनाव हो चुके। 2024 में अठारहवाँ चुनाव केन्द्र में कराया जावेगा।
इसी प्रकार राज्यों में 1952 1957, 1962, 1967, 1972, 1977, 1980 1985, 1990, 1993, 1998, 2003, 2008, 2013 और 2018 में पन्द्रह बार चुनाव सामयिक नियमित कराये जा चुके हैं। अब जो राजस्थान प्रदेश मे सामयिक जो नियमित होगा वह सन् 2023 में होगा जो सोलहवाँ चुनाव होगा।
अतः आ गया न दो चुनावों का अन्तर। राज्यों में भी केन्द्र की भाँति मण्डल कमण्डल और मन्दिर मस्जिद के मुद्दे उछाले जाते रहे हैं। अतः 1990 में नो चुनावों के बाद सन् 1993 में तीन साल की अवधि में ही दसवा चुनाव कराना पड़ा ।
मात्र अब मन्दिर मस्जिद के मुद्दे को परिवर्तित कर साम्प्रदायिकता एवं हिन्दुत्व के रूप में उछाला जा रहा है। अतः एक कांग्रेस पार्टी के पास जाति का मुद्दा है तो भारतीय जनता पार्टी हिन्दुत्व के मुद्दे पर चुनाव लड़ रही है।
जबकि देश का ज्वलन्त मुद्दा महँगाई और बेरोजगारी का है जिस पर चुनाव का फोकस होना चाहिये न कि धर्म एवं सम्प्रदायवाद पर। देश के अवाम को 142 करोड़ जनशक्ति को रोटी, कपडा और मकान चाहिये जो उनकी वेयर नेसेसिटी है मूलभूत आवश्यकता है।
स्वतन्त्रता के पिचेत्तर वर्षाे बाद भी अगर सरकार अपनी प्रजा (जनता) को इन आवश्यक मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करा पाती है तो फिर देश के सामने महत्वपूर्ण प्रश्न है कि फिर इनकी आपूर्ति कब करा पायेगी सरकार को इसकी समय सीमा निश्चित करनी चाहिये। और लेखक की दृष्टि में देश के अवाम को रोजगार मुहैय्या कराकर एवं मँहगाई पर रोक लगाकर ही यह काम किया जा सकेगा वरना कदापि नहीं।
राज्यों में भी 1990 मे नवीं बार चुनाव सम्पन्न हो गए। परन्तु 6 दिसम्बर सन् 1991 में अचानक अयोध्या में भारतीय जनता पार्टी के कार्यकत्ताओं द्वारा बाबरी मस्जिद गिरा दिये जाने के कारण साम्प्रदायिक दंगा भड़क गया जिसके कारण उत्तर प्रदेश राजस्थान, मध्य प्रदेश की सरकारों को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाया गया जहां पुनः चुनाव सन् 1993 में कराये गए। राज्यों में यह दसवाँ चुनाव था।
 



भारत में आम चुनाव का वृतान्त - भाग 2
लेखक - वासुदेव मंगल, ब्यावर
जैसा कि पिछले लेख में बताया कि भारत की स्वतन्त्रता के 41 वर्षों बाद भारत की राजनीति ने करवट बदली। भारत में दो मजबूत गठबन्धन की राजनीति शुरू हुई। पहीला कांग्रेसी पार्टी को समर्थित यूनाईटेड प्रोग्रेशिव एलायन्स और दूसरा नेशनल डेमोक्रेटिक एलायन्स भारतीय जनता पार्टी को समर्थित। जो यह गठबन्धन की मजबूत राजनीति सन् 1989 के नवें आम चुनाव में केन्द्र में देखने को मिली। इस चुनाव में केन्द्र मे एन.डी.ए. को जीत हासिल हुई और एनडीए के विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधान मन्त्री बने। चूँकि एनडीए गठबन्धन का यह आराम्भिक काल था। अतः गल्ती होना स्वाभाविक था। श्री सिंह ने मण्डल कमीशन की सिफारिशें केन्द्र में लागू कर दी। अतः उनके गठ बन्धन साथी बी.जे.पी. विरोध में हो गई। अतः बी.जे.पी. के मन्दिर मस्जिद वाले स्वर मुखर हुए। इधर चन्द्रशेखर मण्डल कमण्डल के धुर विरोधी हो गए और सिंह की सरकार से अपना समर्थन वापिस लेकर कांग्रेस की राजीव गाँधी का समर्थन लेकर स्वयं प्रधान मन्त्री बन गए। इस प्रकार विश्वनाथ प्रताप सिंह मात्र एक साल ही प्रधानमन्त्री रह सके चन्द्रशेखर भी अधिक समय तक टिक नहीं सके। राजीव गांधी ने सन् 1990 की आखिर में समर्थन वापिस ले लिया। अतः 1991 में पुनः केन्द्र में चुनाव घोषित करना पड़ा दसवीं बार। आप देखिये नये नये इन जन सेवकों की आपसी कुर्सी की लड़ाई ने दूसरी बार यह हालात पैदा की। पहली बार सन् 1977 में मोरारजी देसाई और चौधरी चरणसिंह की 1979 तक की लड़ाई है। और दूसरी बार विश्वनाथ प्रताप सिंह और चन्द्रशेखर की लड़ाई 1990 ने। दोनों ही टर्म में हालांकि चारों ही बारी बारी से पटकनी देकर प्रधान मन्त्री की कुर्सी पर बैठे पर टिक नहीं सके। इसीलिये दोनों बार समय से पहले चुनाव की घोषणा हुई। 1991 के दसवें चुनाव में केन्द्र में कांग्रेस पार्टी समर्थित यू.पी.ए. को विजयी मिली। परन्तु यहाँ इस चुनाव में एक अनहोनी घटना सामने आई। विजयी गठबन्धन यू.पी.ए. के पास प्रधान मन्त्री बनने का कोई दावेदार नहीं था। हुआ यूँ कि राजीव गाँधी की 21 मई 1991 में श्री पेरम्बटूर, दक्षिण भारत में चुनाव के प्रचार के दौरान लिट्टे द्वारा मंच पर हत्या कर दी गई थी। गाँधी परिवार का देश के लिये यह दूसरा बलिदान था। राजीव होते तो कोई परेशानी नही रहती। एन डी ए ने सत्ता से जाते जाते देश के खजाने को खाली कर दिया था। अतः बिना फाईनेन्श के कोई भी प्रधान मन्त्री की कुर्सी सम्भालने को तैय्यार नही हुआ। ऐसे वक्त में डाक्टर मन मोहन सिंह ने आन्ध्र के नरसिम्हारान को उनकी शर्त पर इसके लिये राजी किया। श्री नरसिम्हाराव को विदेश मन्त्री के रूप मे शासन करने का तौर तरीका मालूम था। नरसिम्हाराव ने मनमोहन सिंह को वित्तमन्त्री पद की जिम्मेदारी दी। मनमोहन सिंह को रिजर्व बैंक के गवर्नर व योजना आयोग के उपाध्यक्ष के पदों पर काम करते हुए वित्त व्यवस्था करने का खासा तजुरबा था अतः 1991 के दसवें चुनाव की विजयश्री पर यू.पी.ए. के प्रधानमन्त्री बनने को राजी हो गए और प्रधान मंत्री की जिम्मेवारी सम्माली नरसिम्हा राव ने दसवें प्रधानमन्त्री के रूप में। जो पाँच साल तक सफलता पूर्वक देश में राज किया 1996 तक।
डाक्टर मन मोहन सिंह को देश की आर्थिक व्यवस्था चलाने के लिये खासा मेहनत करनी पड़ी। डा. सिंह विश्व की अर्थव्यवस्था से वाकिफ थे। अतः देश को चलाने के लिये विश्व की आर्थिक संस्थाओं से उनकी शर्तों पर वित्त का जुगाड़ करना पड़ा जैसे आई.एम.एफ. (अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष) से। श्री सिंह एक कुशल अर्थशास्त्री थे। अभी तक भारत अपने तौर तरीकों से अपने साधनों से अपने देश की प्रोडक्ट से ही काम चलाता आ रहा था। अतः भारत के मुद्रा बाजार पर उसका एकाधिकार रहा चम्माालिस साल से। परन्तु अब भारत को अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की शर्तों पर चलना पड़ा। अतः देश की माली हालत को सुधारने के लिये भारत के बाजार को विश्व बाजार का सदस्य बनाना स्वीकार किया श्री सिंह ने परन्तु यह स्वीकारा कि पन्द्रह साल बाद सन् 2007 से लागू करने की पाबन्दी के साथ। अतः एक बार तो कैसे तैसे करके भारत की आर्थिक व्यवस्था को अपनी सूझ बूझ से पटरी पर ले आये डा. मन मोहन सिंहजी।
सन् 1996 मे ग्याहरवा आम चुनाव हुआ केन्द्र में। इस बार एनडीए सत्ता में आया। एच. डी. देवगौड़ा एनडीए के ग्यारहवें प्रधान मन्त्री बने पर ज्यादा नहीं चल पाये। उनके इस्तीफा देने के बाद श्री इन्द्रकुमार गुजराल भारत के बारहवें प्रधान मन्त्री बने। वे भी कामयाब नहीं हुए। अतः दो साल में ही सन् 1998 में समाप्त होते होते गुजराल साहिब ने इस्तीफ़ा दे दिया तब श्री अटलबिहारी वाजपेई देश के तेरहवें प्रधान मन्त्री बनाये गए एनडीए की तरफ से। परन्तु तेरह दिन बाद ही 1998 के आखिर में उन्हें भी मन्त्री मण्डल डिजोल्व करना पड़ा। अतः 1996 से 1998 में अल्प अवधि में ही एन.डी.ए. के तीन तीन प्रधानमन्त्री को दो साल की कम अवधि में ही हटना पड़ा और आखिर में 1998 में चुनाव आयोग को केन्द्र में बारहवाँ आम चुनाव कराना पड़ा। पहले तो भारत का शासन स्वयं के मुद्रा बाजार अथवा भारत सरकार की आर्थिक निजी पर चलता रहा। परन्तु अब विश्व मुद्रा बाजार पर निर्भर रहना पड़ता था। अतः भारत की आर्थिक माली हालत शोचनीय होती गई दिन पर दिन।
सन् 1998 के बारहवें आम चुनाव में एनडी.ए. पुनः बारहवीं बार में सता में आई। अतः केन्द्र में दोबारा अटल बिहारी बाजपेई प्रधान मन्त्री बने। पहीली बार तेरह दिन के लिये प्रधान मन्त्री रहे। दूसरी बार भी तेरह महीनों के लिये प्रधान मंत्री रहे। अकस्मात 1999 में पुनः एक बार चुनाव आयोग को तेरहवीं बार केन्द्र में चुनाव कराने पड़े। इस बार भी एनडीए सत्ता में आई और तीसरी बार अटल बिहारी वाजपेई प्रधान मन्त्री बने। तीसरी बार वाजपेईजी ने पूरे पाँच साल बखूबी प्रधानमन्त्री रहते हुए राज किया देश में 2004 तक। चूँकि अब भारत दुनिया का बाजार बन चुका था। अतः दुनिया भर की प्रोडक्ट भारत के बाजार में आकर बिकने लगी। अतः उपभोक्ता वस्तुओं में प्रतिस्पर्धा होने लगी परस्पर। अब मार्केटिबिलिटी फेक्टर काम करने लगा। वस्तु विशेष की क्वालिटी, लागत आदि देखकर टिकाऊपन देखकर बाजार चलने लगे। जब स्पर्धा भी बहुत अधिक हो गई। अब तो शताब्दी भी बदल गई। इक्कीसवीं शताब्दी सन् 2001 में आरम्भ हो गई। भारत का अपना बाजार टाईट हो गया। डिमाण्ड सप्लाई का लॉ काम आने लगा कन्ज्यूमर्स की चोईस काम करने लगी। वस्तु विशेष के अनेक विकल्प हो गए। अतः भारत के कस्टोमर्स को ग्लोबल ट्रेण्ड पर चलना लाजिमी होना पडा। ऐसी सूरत मे करेन्सी मार्केट का ट्रेण्ड भी बदलता गया। अतः सन् 2004 आते आते चौहदवाँ चुनाव सर पर था। एन.डी.ए. भी शासन से तोबा तोबा करने लगा। अब शासन में केन्द्र में स्वस्थ परम्परा चालू हो गई थी। जब खजाना भरा हुआ था तब तो किसी भी तरह की दिक्कत नहीं थी। परन्तु खाली खजाने के लिये हर किसी को राज करना भारी पड़ रहा है। अब 2004 में चौहदवाँ चुनाव हुआ। इस बार यूपीए की सरकार सत्ता में आई। स्वयं मन मोहन सिंहजी को हाईकमान ने प्रधानमन्त्री का ताज पहनाया। डा. मनमोहन सिंह जी तो अर्थ व्यवस्था के चाणक्य थे। उन्होंने ही सन् 1991 में भारत की डूबती नाव को सम्भाला। नहीं तो भारत की अर्थ व्यवस्था तो सन् 1991 में ही चौपट हो गई थी। उस समय नहीं सम्भले होते तो आज भारत की तस्वीर ओर कोई दूसरी ही होती। यहाँ पर यह बात भी साफ है कि मनमोहन सिंहजी के शासन में ही सन् 2007-08 में उनके 1991 में किये हुए पन्द्रह साल की अवधि पार का समझौता भी लागू हो गया। अतः अब तो उनको दोहरी आर्थिक नीति से गुजरना पड़ा। दुनिया भर के तमाम दो सो तीस से भी ज्यादा देशों की वस्तुएँओं से देश का बाजार अट गया। शर्त भी इन्टरनेशनल फाइनेंस की लागू हो गई 2007 में भारतीय सरकार पर। परन्तु फिर भी सिंह साहिब ने बड़ी ही दूरदर्शिता से मोनेट्री मेनेज किया देश का। अतः 2009 के पन्द्रहवें चुनाव में फिर से सत्ता में आने मे कामयाब हुए। इस टर्म को भी पूरे पाँच साल सन् 2014 तक मनमोहन सिंहजी ने बखूबी से देश की फाइनेन्स की व्यवस्था को सम्भाले रक्खी । मोनटेकसिंहजी अहलूवालिया जो थे उनके साथ। अतः यह जोड़ी सार्थक रही अपनी जिम्मेदारी को बखूबी निभाने में। इन्होंने सन् 2014 में जब एनडीए की सोलहवीं सरकार श्री नरेन्द्र मोदीजी को पचपन लाख करोड़ का देश का कर्ज (ऋण) सम्मलाया था वहीं ऋण अब नो साल बाद देश का एक सो उनसठ लाख करोड़ हो गया लोन। कहने का तात्पर्य यह है कि बीच में 2019 एक और टर्म में यहीं एनडी.ए की सरकार चुनकर देश में आई। अतः 2014 से लेकर अब तक। आज जो एक लाख करोड़ का जो समझौता फ्राँस सरकार से लोन का किया है उसे मिलाकर चौरानवें लाख करोड़ का कर्जा नो साल में अपने कार्यकाल में लिया है एनडीए सरकार ने 2014 से लेकर 2023 की जुलाई में। जबकि 58 साल में कांग्रेस की सरकार ने मात्र पचपन लाख करोड़ का कर्जा देश पर छोड़ था। और अब एन.डी.ए. की सरकार सब मिलाकर तेईस साल के राज में देश में चौरानवे लाख करोड़ का कर्जा बढ़ाकर अब उसे एक सो उनसठ लाख करोड़ का कर दिया इसने कौनसी शाबासी हासिल करली।
भई इस एक सरकार ने तो देश को रसातल में बैठा कर रख दिया। आज देश की आबादी एक सो बय्यालिस करोड़ है। आज देश के हर नागरिक पर एक करोड़ सतरह लाख का कर्ज है देश का। तो इसमें कौनसी शाबासी है। अतः आने वाले समय में देश को बहुत ही सोच समझकर चलाना पड़ेगा यह बात तो सच है। सरकार को अपनी गुंजाईश के अनुसार ही चलना चाहिये नहीं तो बड़ी मुश्किल हो जायेगी। अपने साधनों को देखकर चलना चाहिये। इसी में सरकार की समझदारी है।
 

इतिहासविज्ञ एवं लेखक : वासुदेव मंगल
CAIIB (1975) - Retd. Banker
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