‘‘ब्यावर’ इतिहास के झरोखे
से.......
✍वासुदेव मंगल की कलम से.......
छायाकार - प्रवीण मंगल (मंगल फोटो स्टुडियो, ब्यावर)
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4 जून 2023 को सन्त कबीरदास का
625वाँ जन्म 624वीं वर्ष गाँठ पर विशेष
तद्नुसार विक्रम संवत् 1456 की ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को आज के दिन
लेख : वासुदेव मंगल, ब्यावर
सन्त कबीरदास का जन्म आज से 624 साल पूर्व बनारस में हुआ था। सन्त कबीर
भक्तिकाल के समाज सुधारक थे। सर्वश्रेष्ठ समाज सुधारक थे। कबीरदासजी
सर्वधर्म सुखाय के जनक थे।
काशी एक जुलाहा नीरू अपनी बीबी नीमा का गौना कराकर एक दिन लहरतारा
तालाब से होते हुए घर आ रहे थे तो उसकी बीबी नीमा को प्यास लगी तब दोनों
तालाब पर पानी पीने लगे। तब उन्होंने एक टोकरी में फूल पत्ते की शैय्या
पर एक नवजात शिशु को देखा।
नीरू नीना उस शिशु को उठाकर घर ले आये और उसका लालन पालन करने लगे। वहीं
बालक कबीर के नाम से प्रख्यात हुआ। अब यहां पर यह सवाल उत्पन्न होता है
कि यह बालक लहरतारा तालाब पर कहाँ से आया? इस बारे में मान्यता यह है
कि एक विधवा या कुमारी युवती लोक लाज के भय से जो ब्राह्मण कुल से थी
के कोख से पैदा हुआ यह बालक जनम से हिन्दू था किन्तु इस बालक का लालन
पालन मुस्लिम परिवार में हुआ था।
तो आप यहां पर देखिये हिन्दू मुस्लिम अनोखी संस्कृति का कमाल। कबीर एक
सो बीस बरस तक जीये। माघ शुक्ला एकादशी विक्रम संवत् 1575 को मगहर में
पंच तत्व में विलीन हुए। इस प्रकार कबीर दास जी तब तक साम्प्रदायिक
सदभाव का सन्देश दुनियां को देते रहे।
कबीरदास जी काशी के गंगा घाट के किनारे रहा करते थे। बालक कबीर की शादी
बचपन में ही कर दी थी। कबीरदास जी की पत्नि का नाम लोई था। कबीरदास जी
के एक पुत्र था और एक पुत्री भी थी। पुत्र का नाम कमाल था और पुत्री का
नाम कमाली था जो उनकी रचनाओं से प्रमाणित होता है।
एक दिन कबीरदास जी गंगा घाट पर बैठे हुए थे तब भक्तिकाल के प्रमुख गुरू
रामानन्दजी स्नान कर रहे थे उस वक्त रामानन्जी गुरूजी को देखकर
कबीरदासजी के मुँह से राम शब्द निकल पड़ा, इसी राम शब्द को सुनकर गुरू
रामानन्द अत्यधिक प्रसन्न हुए। तब से रामानन्दजी गुरू ने कबीर को अपना
शिष्य बना लिया।
गुरू रामानन्दजी ने कबीर को ज्ञान और भक्ति के दर्शन कराये तथा कबीर के
ज्ञान को विकसित करने में प्रमुख भूमिका निभाई।
कबीरदास जी सन्त के साथ साथ दार्शनिक कवि और समाज सुधारक भी थे। कबीर
की मुख्य रचनाओं में साखिया - सबद और रमणी है। सबद रचना में कबीरदासजी
ने प्रेम और अन्तरंग साधना का वर्णन खूबसूरती से किया है।
कबीरदासजी ने अपना सारा जीवन लोगों के कल्याण के लिये लगा दिया।
उन्होंने सामाजिक बुराईयों और कुरीतियों का अन्त किया।
कबीर की निष्पक्षता, दो टूक कहने का ढंग और बड़ी बड़ी रहस्यात्मक गुत्थियों
को सरल और सहज भाषा की शैली में व्यक्त करने के कारण ही उनको भक्तिकाल
का प्रमुख सन्त माना गया है।
कबीर मानते थे कि मेरा अपना कुछ भी नहीं है। जब मेरा अपना कुछ भी नहीं
है तो फिर उसके प्रति आसक्ति, ममता क्यों? यह ममता मोह ही तो प्राणियों
को परमात्मा से विमुख कर देती है।
कबीर कहते है हे प्राणी यह तुम्हारी मुर्खता है कि पहले जाति पूछते हो
फिर उसके हाथ का पानी पीते हो। तुम जिस मिट्टी के घर में बैठे हो उसमें
सारी सृष्टि समाई हुई है। कबीर कहते है ये तुम्हारे कर्म है जो तुम्हारे
सामने आते है। कबीर सारी परम्पराओं से हटकर सबके सार तत्व को स्वीकार
करते है।
उनकी सत्यनिष्ठा और निष्पक्षता ने उनको इतना महान बना दिया कि जो भी
उनके पास गया उन्हीं का होकर रह गया।
कबीरदास ऐसे महान् सन्त है जो केवल भारतीय परम्परा ही नहीं अपितु विश्व
मानवता को ऐसे मुकाम पर ले जाते है। जहाँ पर पहुँच वर्ण, वर्ग व सारे
भेदभाव निस्सार हो जाते है। जिस मुकाम पर प्रेम की निर्मल धारा,
स्निग्ध घारा और शीतल घारा प्रवाहित होकर सबको सराबोर कर देती है।
यह कहना अतिश युक्ति नहीं होगी कि कबीर में पूरी मानवता का सार समाया
हुआ है।
ऐसे महान सन्त को उनके जन्म दिन पर लेखक का शत् शत् नमन।
सन्त कबीर फिरक्का परस्ती को तो मानते ही नहीं थे। उनके लिये पूरी
मानवता एक थी। वे जीये जब तक पूरी मानवता के कल्याण और भलाई के लिये
समर्पित रहे।
कबीरा खड़ा बाजार में सबकी मांगे खैर।
ना काहू से दोस्ती ना काउ से बेर ।।
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