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‘‘ब्यावर’ इतिहास के झरोखे से.......

✍वासुदेव मंगल की कलम से.......
छायाकार - प्रवीण मंगल (मंगल फोटो स्टुडियो, ब्यावर)

5 सितम्बर 2023 शिक्षक-दिवस
सामयिक लेखः वासुदेव मंगल, ब्यावर जिला (राज.)
गुरु की महिमा अपरम्पार है। गुरु बिन ज्ञान कहाँ से आवे?
गुरु कठिन प्रश्न का हल सरलता से शिष्य को समझाने का श्रम करते हैं। वैसे तो गुरु वन्दन का पर्व गुरु पूर्णिमा को ही है। परन्तु हाल ही स्वतन्त्रता के बाद देश के प्रथम उप राष्ट्रपति डाक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिन को उनके अनुसार शिक्षक दिवस के रूप में 5 सितम्बर को प्रति वर्ष मनाया जाने लगा। डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन न सिर्फ महान शिक्षक ही थे बल्कि वे एक महान दार्शनिक भी थे। वे भारत के दूसरे राष्ट्रपति थे। उनको भारत के सर्वाेच्च सम्मान भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया था।
भारत सांस्कृतिक पद्धति वाला देश रहा है। प्राचीनकाल में प्रथम गुरु महर्षि वेद व्यास को माना जाता है जिन्होंने वेदों की रचना की। फिर क्रमशः महर्षि वाल्मीकि, गुरु द्रोणाचार्य, गुरु विश्वामित्र, चाणक्य थे। यह पद्धति भारत मे सनातनकाल से प्रवाहित होती चली आ रही है। प्राचीनकाल में शिक्षा की प्रद्धति गुरुकुल हुआ करती थीं। वेद व्यास विष्णु के अवतार माने जाते है। चाणक्य अर्थ नीति के रणनीतिकार थे। गुरु शब्द गुर से बना है जिसका सीधा सा सरल अर्थ होता है ज्ञान से। जो ‘ज्ञानरूपी मन्त्र’ दे वह ही गुरु है।
लेखक की दृष्टि से वर्तमान में शिक्षा का सही नजरिया विद्यार्थी की विद्या अर्जन में सेल्फ-स्टेडी होनी चाहिये। हाँ प्रश्न का हल अगर कठिन हो तो हल का गुर गुरु से लेना अन्यथा स्वयं के विद्या पठन अध्ययन से प्रश्न गत हल व्यक्ति अपने आप आगे से आगे सोचने से आता चला जाता है। ऐसा करने से अमुख व्यक्ति अपनी मेघा शक्ति पर जोर डालता है तो उस प्रश्नगत चिन्तन से सोच के द्वारा मन्थन करने से हल स्पष्ट रूप से सामने होता है। अतः इस प्रकार की प्रेक्टिस पढ़ाई परेशानी शुरु शुरु मे महसूस जरूर होगी परन्तु बाद में इसमें जो आनन्द आता है वह बहुत स्थायी होगा। फिर विद्यार्थी पीछे मुड़कर नहीं देखेगा और खोज में आगे से आगे बढ़ता जायेगा अपने ही आप।
कहने का तात्पर्य यह है कि गुरु मात्र विद्यार्थी (शिष्य) को प्रश्न का हल करने का गुर बताता है। पढ़ाई तो शिष्य को स्वयं ही करनी होती है।
बुरा मानने की बात नही है। यह कड़वा सच है कि आजकल स्वाध्याय करने की गुरु की प्रवृति बहुत कम होती जा रही है। यह गुण गुरु में जब प्रस्फुटित होता है या होगा जब शिष्य (विद्यार्थी) स्वयं प्रश्नगत हल करता है और यदि फिर भी समझ में नहीं आता है तो गुरु से इसको पुर्ण करता है और इस वेग या तरंग को ही हल कहते है। परन्तु यह वेग पढने का भावना प्रधान होना समर्पित स्वाध्याय का होना चाहिये तब ही इसमे कामयाबी हासिल होगी विद्यार्थी या शिष्य को अन्यथा कदापि नहीं।
आजकल शिक्षा भी शिक्षा न होकर व्यापार हो गया है। स्कूल, कालेज, महाविद्यालया या यूनिवर्सिटी (विश्व विद्यालय) में शिक्षा मात्र दिखावटी रह गई आप जिस विषय का चेप्टर पढ़ा रहे हैं तो उससे सम्बन्धित तमाम गूढ़ रहस्य कन्सेप्ट विधार्थीगण को क्लास मे समझाने चाहिये। लेकिन ऐसा नहीं होता है। अतः ट्यूशन की भावना इस काम मे आडे आती है। जो लेखक की दृष्टि से नहीं होना चाहिये। अगर शिक्षा ही बिकने लग जाय तो फिर शिक्षा प्राप्ति की व शिक्षा देने की सार्थकता ही समाप्त हो जायगी। अतः यह कदाचित नहीं होना चाहिए। अगर प्रश्न के हल करने के कंसप्ेट अमूख विद्यार्थी के दिमाग में क्लीयर हो जायेंगे तो घर तो पारस का हो गया फिर मेमोरी सेल से वह मेमोरी सदा बनी रहेगी। तो शिक्षा का यह नजरिया तब लागू हो सके जब अमुख प्रश्न के हल करने की तैयारी पूर्ण रूप से दोनों गुरू और और शिष्य विद्यार्थी दोनों साथ साथ करके लेकर आए कक्षा में पढाते वक्त और पढ़ते वक्त। तो फिर टयूशन करने और कराने की जरूरत ही नहीं पेड़गी।
परन्तु आजकल ऐसा वातावरण नहीं रहा है जिससे यह परिपाटी हो गई ट्यूशन की। पढ़ाई का क्राइटेरिया स्पून फीड का हो गया है जिससे शिक्षा का स्तर दिन पर दिन कम होता जा रहा है। यानि गिरता जा रहा है।
न तो ऐसे शिक्षक रहे और न ही शिष्य। शिक्षा के प्रति सच्ची लग्न और समर्पित भावना प्रायः लुप्त हो गई। अब शिक्षा भी नाम मात्र की रह गई।
आज शिक्षक दिवस पुनः एक बार सच्चे ज्ञान के प्रति समर्पित भावना का ‘ओज’ ज्ञान के मन्दिर मे प्रतिष्ठित होना चाहिए गोष्ठी के माध्यम से इस प्रकार ज्ञान की ज्ञान ज्योति प्रज्जवलित होनी चाहिए जिससे शिक्षा का पुनः एकबार पुरातन स्तर स्थापित किया जा सके आज शिक्षक दिवस पर सही मायने में शिक्षक दिवस मनाये जाने की सार्थकता तब ही फलीभूत हो सकेगी माँ सरस्वती की आराधना।
इसे एक बार प्रयोग के रूप में ही सही परन्तु इस आशय से यह लेखक के स्वयं के प्रेरणारूपी विचार है यदि पसन्द आये तो जरूर अपनाया जाना चाहिए नही ंतो बिल्कुल नहीं।
भारतीय शिक्षा का स्तर विश्वगुरु का होना चाहिये तब ही सच्चे मायने में शिक्षा की उपादेयता होगी। आजकल प्रश्न हल की गई कुन्जी बाजार में आ गई जिससे विद्यार्थी दिमाग पर और पढ़ाई का जोर ही नहीं डालता है और न ही गुरु समर्पित भाव से स्कूल में कक्षा में प्रश्नगत समस्या का हल करने की कोशिश करते हैं। जिससे वैसा ही शिक्षा का स्तर हो गया। प्राचीनकाल में गुरूकुल में गुरू आजकल की तरह सर्टीफिकेट नहीं देते थे मात्र आर्शीवाद देते थे शिक्षा पूर्ण होने पर शिष्य की कलाई पर ज्ञानरूपी कलेवा बांधकर मन्त्रोच्चार के साथ विजय भव के उद्घोष के साथ शिष्य को विदा करते थे। यह ज्ञान ही चहुँ दिशा में फैलवो ब्रह्माण्ड में।
 
 
इतिहासविज्ञ एवं लेखक : वासुदेव मंगल
CAIIB (1975) - Retd. Banker
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