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सामयिक विचार : वासुदेव मंगल, ब्यावर
प्रेस की स्वतन्त्रता अर्थात् स्वतन्त्र विचारों की अभिव्यक्ति एक
गुरूत्तर जिम्मवारी है जो हर किसी पत्रकार के विवेचन की बात है।
भाषा, शैली, शब्दावली, संयम, विषयों का चयन और प्रस्तुति के मुद्दे
स्वतन्त्रता के निर्धारण में इन सब बातों पर मंथन जरूरी है।
विषयवस्तु के चिन्तन की दिशा और दशा सही होनी चाहिए तब ही जाकर मंथन
वास्तवितक आकार ले पायेगा और सन्दर्भित विषय की प्रस्तुति सही हो पायेगी।
अतः वर्तमान परिपेक्ष्य में पत्रकारिता या प्रेस की स्वतन्त्रता का
सवाल एक ज्वलन्त मुद्दा है।
इसका एक पक्ष सरकार और तन्त्र। सफेदपोश ओर पेशेवर अपराधी दूसरा पक्ष
है। समाचार बाजार तीसरा पक्ष हैं चौथा पक्ष स्वयं मीड़िया हैं इन सब पहलू
की सोचे अलग-अलग हैं इन सबकी प्राथमिकताएँ अलग-अलग हैं। मुद्दों से
टकराने के तौर-तरीके भी भिन्न-भिन्न है।
गणेश शंकर विद्यार्थी मनीषि का मानना था कि पत्रकार की समाज के प्रति
बड़ी जिम्मेदारी है अर्थात पत्रकार जो लिखे प्रमाण और परिणाम को ध्यान
में रखकर लिखे।
इसी प्रकार ‘महात्मा गाँधी के अनुसार स्वयँ का अँकुश ऊपर उठाने वाला
होता हैं।’ दूसरों का दिया हुआ अंकुश नीचे गिराने वाला होता है।
विनोबा भावे का मानना था कि थर्मामीटर दूसरों का बुखार इसलिए माप सकता
हैं क्योंकि उसका अपना बुखार नहीं होता।
तात्पर्य यह है कि स्वतन्त्रता और दायित्व बोध के बीच सन्तुलन की महीन
सीमा रेखा है।
संविधान में लोकतन्त्र के तीन स्तम्भ माने गए - विधायिका, कार्यपालिका
और न्यायपालिका। परन्तु खबरपालिका को स्तम्भ नहीं माना हैं।
खबरपालिका लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ तब कहा जाने लगा जब भारतीय नवजागरण
आन्दोलन काल में संपादकों और पत्र-पत्रिकाओं की जैसी तेजस्वी भूमिका रही
है, उसी कारण पत्रकारिता को मिशन कहा गया ।
लोक शिक्षक और लोक-प्रहरी का दायित्व निर्वाह करने की अपेक्षा के कारण
पत्रकारिता ने लोक मान्यता और प्रतिष्ठा पाई।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद-19 में जो वाणी की स्वतन्त्रता और
अभिव्यक्ति वर्णित है, वह अधिकार सभी नागरिकों को समान रूप से प्राप्त
है।
भारत में समय-समय पर पत्रकारिता की स्वतन्त्रता पर आघात होते है।
सामाजिक-आर्थिक अपराधियों द्वारा प्रताड़ना की वारदातें भी होती रही है।
भारतीय संविधान में पहला संशोधन 1951 में किया गया था। सार्वजनिक
व्यवस्था विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों अथवा बोलने की
स्वतन्त्रता के अपराध-उद्दीपन आदि सन्दर्भों में यह प्रावधान किया गया।
स्वतन्त्रता के पाँच साल बाद पहला प्रेस आयोग (1952) जस्टिस जी. एस.
राज्याध्यक्ष की अध्यक्षता में गठित किया गया।
आयोग ने जो सिफारिश प्र्रेषित की उसके आधार पर सरकार ने तीन महत्वपूर्ण
कद्म उठाए - प्रेस परिषद का गठन, समाचार पँजीयक - आर, एन, आई संस्कृति
की स्थापना और पत्रकारों के लिए वेतन-बोर्ड हाँलाकि इस संस्थ को
नरक-दन्तविहीन संस्था बनाकर रख दिया।
तब दूसरा प्रेस आयोग (1978) में जस्टिस पी. के. गोस्वामी की अध्यक्षता
में गठित किया गया। नई सरकार बनने पर जस्टिस के. के. मैथ्यू की
अध्यक्षता में (1980) में नया आयोग बना।
दूसरे प्रेस आयोग की सिफारिशें आए चालीस वर्ष हो गए। इस अवधि में प्रेस
ने बहुआयामी मीडिया का विशाल स्वरूप ग्रहण कर लिया हैं सूचना प्रौघागिकी
ने मीडिया को नये नये औजार और नई-नई प्रविधियां उपलब्ध कराई है।
माखनलाल चतुर्वेदी ने कहा था - तुम्हारी कलम की कीमत लगेगी। बार बार
लगेगी। लेकिन, जिस क्षण वह कीमत स्वीकार कर लोगे, हमेशा के लिए कलम की
कीमत खो बैठोगे।
अतः नये नये आयामों उनकी चुनौतियों और सम्मावनाओं, वर्तमान स्थिति और
भविष्य, पूँजी और तकनीकी जरूरतें, जन सरोकर और बाजार से रिश्ते,
संस्कृति और समाज, पत्रकारों की सेवा शर्तें और सुरक्षा जैसे व्यापक
फलक पर विस्तार से वस्तु निष्ठ अध्ययन की आवश्यकता है।
प्रेस की स्वतन्त्रता की रक्षा लोकतन्त्र और समाज के व्यापक हित में
है। यह काम संसद से कानून बनाकर ही हो सकता है। एक कदम पत्रकार भी उठा
सकते हैं।, प्रेस की स्वतन्त्रता को बनाये रखने के लिये जरूरी है कि
पत्रकार अपने हिस्से की जिम्मेदारी सुनिश्चित करें।
आज विश्व प्रेस स्वतन्त्रता दिवस पर सामयिक विचार प्रस्तुतकर्त्ता
वासुदेव मंगल की दुनियाँ के सभी पत्रकारों को हार्दिक शुभकामनाएँ।
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