ब्यावर का बादशाह ‘मेला’
रचनाकार:- वासुदेव मंगल
रंगों के त्यौंहार के
अगले दिन अल्प समय के लिए बादशाह अकबर की यादगार संवारे जनता जनार्धन के बीच
शाही अन्दाज में सन्र 1851 से उत्तरोत्तर एवं निरन्तर बढते हए देशी विदेशी
पर्यटकों एवं अपार जनसमूह के बीच अनूठी लोकप्रियता हासिल किये हुए है जो कि
ऐतिहासिक शहर ब्यावर के सम्पूर्ण विश्व में अनोखी पहचान है। गुलाल अबीर का
यह मेला परस्पर सोहार्द और जनमानस की खुशियों की उन्मुक्त अभिव्यक्ति की
अनूठी मिसाल है। जो कि बेमिसाल है।
वेब साईट प्रस्तुतकर्ता वासुदेव मंगल स्वयं भी इस गौरवमयी बादशाह मेले में
बादशाह का अनूठा एवं यादगार किरदार एक नहीं अनेकों बार अपनी अदभुत समता से
निभाने की यादे आज भी जन मानस अपने स्म़ति पटल पर संजोये हुए है।
लेखक स्वयं इस मेले में बादशाह का अभिनय छ बार सन् 1978, 1986, 1987, 1988,
1990 व 1991 में कर चुके है।
हर दिलकश अजीज का मन भावन गुलाल का बादशाह मेला अग्रवालों की देन है। यह मेला
कौमी एकता का जीवन्त रूप है। यह मेला होली के तीसरे दिन सांय चार बजे राजस्थान
प्रान्त के ह्रदय स्थली ब्यावर शहर में हर साल पर्यटन मेले के रूप में आयोजित
किया जाता है स्थानिय प्रशासन जिला, प्रादेशिक प्रशासन व अग्रवाल समाज के
सामूहिक प्रयत्नों से।
यह मेला भारत वर्ष की मूल संस्कृति की झलक लिये हुऐ आज की भैतिक दुनियां में
मानव मन व मस्तिष्क को प्रफुल्लित करने का एक अनोखा प्रयास है ।
इस मेले को ब्यावर शहर के संस्थापक कर्नल डिक्सन ने सन् 1851 में अग्रोहा,
शेखावाटी, बेरी, भिवानी से आये अग्रवाल फतेहपुरिया के सहयोग से पीरामल टोड़रमल
की दूकान से पाॅंचबत्ती के पास कपड़ा बाजार से आरम्भ किया जो फतेहपुरिया बाजार,
अजमेरी दरवाजे से होता हुआ उप-जिला कार्यालय पर उपजिलाधिश द्धारा बादशाह के साथ
गुलाल खेलने के पश्चात् रात्रि को करीब 8 बजे समाप्त हो जाता है इस मेले को
देखने के लिए दूर-दूर से व आस-पास के इलाकों से हजारो नर-नारी व विदेशी सैलानी
आते हैं । चारों और मेले में भारतीय संस्कृति दृष्टिगोचर होती हैं वह सभी जाति,
धर्म-सम्प्रदाय के लोगोे के आपसी मेल-मिलाप व गुलाल से परस्पर खेलने व बादशाह
के साथ गुलाल से खेलने का आनन्द प्राप्त होता हैं ।
पौराणिक कथानुसार अकबर बादशाह के नवरत्न राजा टोडरमल दवारा जादूई करिश्में से
बादशाह को आखेट के वक्त जंगल में आवश्यक उपकरण व मुद्रा उपलब्ध कराये जाने से
प्रसन्न होकर बादशाह अकबर ने राजा टोडरमल को चार घण्टे की बादशाहत प्रदान की थी
जिसकी याद ताजा रखने के लिये ब्यावर में हर साल होली के त्यौहार पर छारण्डी के
अगले दिन हर दिलकश अजीज का बादशाह मेले का त्यौहार मनाया जाता है ।
बादशाह सलामत व शहजादा वजीर की सवारी खुले ट्रक में ड्राइवर की केबिन की छत पर
पालकियों में परम्परागत वेश भूषा में सजाकर निकाली जाती है जिसे देखने के लिये
व बादशाह के हाथ से गुलाल रूपी खर्ची लेने के लिये हजारों की संख्या में जनता
की भीड़ लालयित रहती है । बादशाह की सवारी जनता के साथ गुलाल खेलती हुई आगे
बढ़ती रहती हैं । इस सवारी के आगे-आगे बीरबल नवरत्न अपनी परम्परागत वेशभूषा में
मूजरा स्वरूप घूमर व मोर नृत्य करता रहता हैं । इस मेले में चलचित्रकार बादशाह
मेले की सम्पूर्ण फिल्म बनाते है जो दूरदर्शन पर दिखाई जाती है । राष्ट्रीय, व
क्षेत्रीय जन सम्पर्क कार्यालय आकाशवाणी दूरदर्शन विभाग इसकी विशेष व्यवस्था
करते हैं । बादशाह के हाथ से ली गई गुलाल शकुनी माना जाती है जिसे प्राप्त करने
के लिये प्रत्येक मेलार्थी आतुर रहता है और किसी भी तरह से बादशाह से खर्ची लेने
की कोशिश करता है । जिसे यह खर्ची मिलती है व अपने को धन्य समझता है और वर्ष
पर्यन्त इसे अपने गल्ले में रखता है जिससे घर दुकान में शांति व धन धान्य बना
रहे तथा देवी की मांगलिक कृपा बनी रहे । इस प्रकार जनता को बादशाह के साथ गुलाल
खेलकर आनन्द की अनुभूति होती है । लोगो को परस्पर ईष्ट मित्रों परिवारजनों,
रिश्तेदारों से गुलाल खेलने पर विशेष आनन्द आता है । आखिर बादशाह की सवारी
गुलाल उड़ाती हुई उप जिला कार्यालय पर रात्री को आंठ बजे करीब पहुंचती है जहां
उपजिलाधीश अपने स्टाफ के साथ बादशाह की अगवानी व स्वागत करने के लिये मौजूद रहते
है तथा बादशाह के साथ गुलाल खेलने को आतुर रहते है । यहां पर रोशनी का विशेष
प्रबन्ध किया जाता है जहां पर आरम्भ होती है गुलाल रूपी लड़ाई बादशाह व
उपजिलाधीश के मध्य करीब आधा घण्टे तक जिसे जन सैलाब देखने का आनन्द लेता है ।
बादशाह व उपजिलाधीश के बीच बीरबल ढोल नगाड़ों व साज की आवाज पर परम्परागत मुजरा
नृत्य करता रहता है । तदन्तर उपजिलाधीश बादशाह को नमन करते हुए बादशाह को
सम्मान प्रदान करते है जिसे बादशाह अपने फरमान के साथ सहर्ष स्वीकार करते है तथा
बीरबल को उप जिलाधिश नजराना प्रदान करते है नारियल व मुद्रा के रूप में । इस
प्रकार यह मेला समाप्त होता है ।
लेखक स्वयं इस मेले में बादशाह का अभिनय छ बार सन् 1978, 1986, 1987, 1988, 1990 व
1991 में कर चुके है । वास्तव में यह एक साधारण मेला नहीं है अपितु देवी की एक
चम्तकारिक शक्ती ही होती है । लेखक के स्वयं के अनुभव से यह शाश्वत सच है कि इतने
विशाल मेले का बखूबी से सामना मानव रूपी बादशाह कर लेता है तथा भैरूहिक शक्ति से
बीरबल रात्री पर्यन्त यहां तक कि अगली सुबह तक बीरबल सारे शहर में नृत्य कर मुजरा
जनता जनार्दन के घर करता रहता है । दर्शक अगले मेले की आशा अपने मन में संजोये
अपने-अपने घर वापिस जाते हैं और बादशाह की सवारी उप जिलाधीश कार्यालय से अन्य मार्ग
से वापिस अपने गन्तव्य स्थान पर आती है जहं से यह आरम्भ होती है । उस वक्त लगभग
रात्री को 10 या 11 बजे का समय हो जाता है जंहा से बादशाह अपने परिवारजन के साथ
ढ़ोल के साथ अपने घर जाते है । बादशाह का मूजरा करने तत्पश्चात बीरबल बादशाह के घर
जाता है जंहा बादशाह से बक्शीस लेता है तथा बादशाह के गले मिलता है ।
इस प्रकार जनता भी अपने घर पर परिवारजन एवं ईष्ठ मित्रों से गुलाल खेलकर खुशी का
इजहार करती है । इस प्रकार समाप्त होता है ब्यावर का बादशाह मेला ।
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