‘‘ब्यावर’ इतिहास के झरोखे
से.......
✍वासुदेव मंगल की कलम से.......
ब्यावर सिटी (राज.)
छायाकार - प्रवीण मंगल (मंगल फोटो स्टुडियो, ब्यावर)
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भारतीय स्वतन्त्रता संघर्ष में
ब्यावर का योगदान
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रचनाकार - वासुदेव मंगल
वैसे तो ब्यावर का क्षितिज पर उदय 19वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में ही
हो चुका था। ब्यावर नगर को सबसे पहले फौजी छावनी के रूप में ही इसके
संस्थापक चार्ल्स जार्ज ड़िक्सन एक फौजी हुक्मरान ने बसाया था। परन्तु
इसके चारों तरफ की पृष्ठभूमि पशुपालन की बहुतायत ने तुरन्त छावनी को
तिजारती शहर में तब्दील कर दिया, और शनैः शनैः यह ऊन के साथ-साथ रूई और
कपास की भी मण्डी बन गई। कालान्तर में अंग्रेजों की हुकूमत के कारण
19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सन् 1880 में दिल्ली से अहमदाबाद के
बीच रेल्वे लाइन बनाये जाने के कारण 19वीं ं सदी के अन्तिम दशक में यहां
कॉटन प्रेस का जाल-सा फेल गया और देखते ही देखते 15 से 20 कॉटन प्रेस
लग गये। यातायात की रेल सुविधा सुलभ हो जाने पर यह शहर औद्योगिक और
व्यापारिक नगर बन गया। कॉटन प्रेस मे यूनाइटेड, न्यू, वेस्ट पेटेन्ट,
हाइड्रोलिक, राजपूताना एवं मेवाड़ी रायली कॉटन प्रेस प्रमुख थे। इसी तरह
सेठ दामोदर दास राठी पोकरण वालों द्धारा दी कृष्णा स्पीनिंग एण्ड
वीविंग मिल्स लिमिटेड की स्थापना भी उसी काल में ही कर दी गई थी। यहीं
से आरम्भ होता है ब्यावर का मिलेनियम काल। मारवाड़, मेवाड़ की पृष्ठभूमि
से लगता ब्यावर शहर आखिरकार मारवाड़ियों का नगर बन गया। शनैः-शनैः यहां
पर सर्राफा व्यापार भी आरम्भ हो गया। इस प्रकार व्यापार और उद्योगों
में उत्तरोतर इजाफा हो रहा था। कई मारवाड़ियों ने अपनी सर्राफा दुकानें
आरम्भ कर दी थीं। इस प्रकार ब्यावर नगर का सर्राफा बाजार, जिसमें 52
सर्राफा हुआ करते थे, दी तिजारती चैम्बर सर्राफान के आधिपत्य में चलने
लगा। इस प्रकार ब्यावर की फौजी छावनी तो नाममात्र रह गई और तिजारती
मण्डी ऊन, रूई और सर्राफा की हो गई। सन् 1909 में ब्यावर में दूसरी
टेक्सटाइल मिल्स दी एडवर्ड मिल्स लिमिटेड सेठ चम्पालाल रामस्वरूप खुर्जा
वालों ने लगाई, जो बाद में ‘रानी वाला’ के नाम से जाने जाते रहे हे। उस
समय सारे कल-कारखाने क्रूड ऑयल अथवा कोयले से चलते थे। यह काल साथ ही
सामाजिक व राजनैतिक जन-जागरण का काल भी था। अतः इसी काल में ईसाई
मिशनरियों के साथ-साथ आर्य समाज एवं सनातन समाज का प्रादुर्भाव भी हुआ।
इसी सन्दर्भ में स्वामी दयानन्द सरस्वती के आगमन से इस क्षेत्र में उनके
उपदेश प्रासंगिक थे। साथ ही साथ स्वामी प्रकाशनन्दजी के आगमन के साथ
सनातन धर्म का फैलाव भी आर्य समाज एवं क्रिश्चियनीटी के साथ-साथ शिक्षा
जगत में शुरू हुआ। इसी दरम्यान सन् 1911 में नगर-परिषद का वर्तमान
परिसर बनकर तैयार हो गया था। अब समय था प्रथम विश्व युद्ध का।
धुरी-राष्ट्र एक तरफ थे, बाकी विश्व दूसरी तरफ था। इसी वक्त भारत में
महात्मा गांधी द्धारा सन् 1914 में भारतीय राजनैतिक स्वतंत्रता आन्दोलन
की बागडोर संभाल ली गई थी। अजमेर-मेरवाड़ा के ब्यावर नगर ने उस वक्त भी
राजपूताना ही नही अपितु सारे भारतवर्ष में राजनीति में सक्रिय भूमिका
अदा की। स्वाधीनता पूर्व ब्यावर अंग्रेजी शासन के अन्तर्गत चीफ कमीश्नरी
के अधीन था। ब्यावर का राजनैतिक व सामरिक दृष्टि से बड़ा महत्व रहा है।
अंग्रेंजों ने समूचे राजस्थान की रियासतों को नियन्त्रण में रखने के
उद्देश्य से ही ब्यावर को फौजी मुख्यालय छावनी बनाया था। परिणामस्वरूप
राजनैतिक जागृति का श्रीगणेश भी सर्वप्रथम ब्यावर में ही हुआ। अतः
बींसवीं सदी के आरम्भिक काल में ब्यावर राजपूताने का ही नहीं अपितु पूरे
भारतवर्ष की राजनैतिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया। दूसरे शब्दों में
राजनैतिक गतिविधियों का पथ-प्रदर्शक, सार्वजनिक जीवन, राजनैतिक चेतना,
शिक्षा प्रसार, सामाजिक सुधार, सांस्कृति विकास, धार्मिक पुनरूत्थान एवं
नवजागरण का सूत्रपात राजस्थान की इस कार्यस्थली ब्यावर से ही हुआ। जब
राजपूती रियासतों के राजे-महाराजे, महारावल व महाराणा मध्यकालीन
सामन्तवादी चोगे को धारण किये विलासिता व दासता एवं अकर्मण्यता की
निन्द्रा में अपनी आत्म गौरव भूले हुए थे तब ब्यावर आधुूनिकता,
वैज्ञानिकता एवं पुर्नजागरण से सम्पादित हो समूचे भारत का मार्गदशर््ान
करने के लिए अग्रसर हो रहा था। राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास
में ब्यावर का अपना विशिष्ट योगदान रहा है। यह राजनैतिक जाग्रति का
अग्रदूत रहा है। ब्यावर के शीर्षस्थ राजनैतिक कार्यकर्ताओं के निर्माण
का श्रेय आर्य समाज को है। इन राजनैतिक कार्यकर्ताओं में प्रताप सिंह
बारहठ, खरवा के क्रान्तिकारी राव गोपाल सिंह प्रमुख थे। स्वामी दयानन्द
प्रथम क्रांन्तिकारी सन्यासी थे जिन्होंने घोषित किया कि ‘भारत भारतीयों
का हैं तथा हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा है।‘ ब्यावर की प्राकृतिक व
भौगोलिक रचना क्रान्तिकारियों को शरण देने व प्रशिक्षण प्राप्त करने
में सहायक सिद्ध हुई। मसूदा के पास श्यामगढ़ के किले में श्री गोपाल
सिंह व उनके सहयोगीयों द्वारा एक विपल्वकारी केन्द्र की स्थापना की गई।
‘ब्यावर पर्वतीय प्रकोष्ठ‘ ने बंगाल, महाराष्ट्र, पंजाब तथा उत्तर
प्रदेश के क्रान्तिकारियों की ब्रिटिश सरकार के गुप्तचरों के जाल से
रक्षा की। श्री चन्द्रशेखर, श्री भगवती चरण और श्री वासुदेव ने समय-समय
पर ब्यावर में ही शरण ली थी। इसी प्रकार ‘सोशलिस्ट रिवोल्यूशनरी आर्मी
की ब्यावर शाखा ने सरदार भगतसिंह को यहां शरण दी। बंगाल के स्वामी
कुमारानन्द ने ब्यावर को अपनी कार्यस्थली बनाया। इस प्रकार भारत के
प्रसिद्ध क्रान्तिकारियों को शरण देने का ब्यावर एक उपयुक्त स्थल सिद्ध
हुआ। जागीरदारों के आक्रोश के कारण शस्त्र उपलब्धि का ब्यावर केन्द्र
था। रियासतों में शस्त्र रखने पर पाबन्दी नहीं थी। ब्यावर
क्रान्तिकारियों के लिये ‘वैधानिक वरदान‘ सिद्वहुआ क्योंकि ब्यावर की
सीमायें देशी रियासतों से जुड़ी हुई थीं। अतः ब्रिटिश नौकरशाही व पुलिस
के दमनचक्र से बचने के लिए क्रान्तिकारी ब्यावर से भागकर देशी रियासतों
में चले जाते थे। अतः क्रान्तिकारियों ने ब्यावर को अपना रक्षा-कवच माना।
ब्यावर क्रान्तिकारियों का मुख्य केन्द्र था। इसी शिविर से क्रान्तिकारी
योजनाओं का सृजन, निर्देशन, नियन्त्रण एवं अधीक्षण किया जाता था।
ब्यावर, केन्द्र में स्थित होने से जागीरदारों के आक्रोश से प्रशिक्षित
होकर प्रशिक्षु क्रान्तिकारी देश के विभिन्न भागों में भेजे जाते थे।
ब्यावर में इनके प्रमुख केन्द्र थेः श्यामगढ़ का किला, चिरंजीलाल भगत की
बगीची, घीसूलाल जाजोदिया की बगीची एवं सेठ दामोदर दास राठी की कृष्णा
मिल्स का अतिथि गृह व नाहरमल की बावड़ी सेन्दड़ा रोड़ पर।
ब्यावर के क्रान्तिकारियों के जीवन पर क्रान्तिकारी साहित्य का सीधा
प्रभाव पड़ा। ‘युगान्तर’ व ‘संध्या’ समाचार पत्र भवानी मन्दिर, वर्तमान
राजनीति, मुक्ति कानपाथे जैसी पुस्तकों का यहां के क्रान्तिकारियों की
मनोवृति ढालने में अत्यन्त योगदान रहा। बाहर के क्रान्तिकारियों का
ब्यावर के क्रान्तिकारियों पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा। इन क्रान्तिकारियों
में प्रमुख थेः श्यामजीकृष्ण वर्मा, रास बिहारी बोस, शचीन्द्र सान्याल,
अरविन्द घोष, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, स्वामी कुमारानन्द, विजय सिंह
पथिक, अर्जुनलाल सेठी, प्रतापसिंह बारहठ, जी.आर. पाण्डे, रामचन्द्र
बापट, सेठ दामोदरदास राठी, सेठ घीसूलाल जाजोदिया, केसरी सिंह बारहठ,
राव गोपालसिंह, जोरावरसिंह बारहठ, नारायण सिंह, बाबा नृसिंहदास, स्वामी
नृसिंहदेव, पण्डित रूद्रदत्त, सूरजसिंह, रामप्रशाद, बालमुकुन्द, रामकरण,
वासुदेव एवं रामजीलाल बन्धु। सन् 1907 से 1911 का समय क्रान्तिकारी
संगठनों की स्थापना का रहा। ‘वीर भारत सभा’ नामक संस्था की स्थापना
सर्वश्री सेठी, बारहठ पथिकजी ने की, जिसके सदस्य कन्हैयालाल आजाद,
जगदीशदत्त व्यास, लक्ष्मीनारायण पहलवान, सोमदत्त लहिड़ी, लक्ष्मीलाल
लहिड़ी, विष्णुदत्त, मणीलाल दामोदर पण्ड़ित ज्वालाप्रसाद, रामसिंह व
भूपसिंह आदि स्थानीय क्रान्तिकारी प्रमुख थे। एक अन्य संगठन के प्रमुख
राव गोपालसिंह थे, जिनको फील्ड मार्शल कहा जाता था। सेठ दामोदरदास राठी
इस संगठन के कोषाध्यक्ष थे एंव विजयसिंह पथिक इस संगठन के सर्वेसर्वा
थे। बीसवीं शताब्दी के प्रथम चतुर्थांश के अनन्तर ब्यावर में
हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिवोल्यूशनरी आर्मी की शाखा की स्थापना की गई।
अजमेर मेरवाड़ा के क्रान्तिकारियों ने शिक्षण संस्थओं की ओट में क्रान्ति
प्रचार किया। सेठ दामोदरदास राठी ने स्वदेशी वस्त्रों के प्रचार हेतु
कपड़ा मिल्स की स्थापना की। सन् 1930 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन के नमक
सत्याग्रह में ब्यावर से महिला-वर्ग ने सक्रिय भूमिका निभाई। सन् 1931
में गांधी-इरविन समझौता विफल होने से सत्याग्रह ने ब्यावर में पुनः
उग्र रूप धारण कर लिया।
सन् 1938 के हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन के बाद रियासतों में प्रजामण्डल
स्थापित हुए। अजमेर मेरवाड़ा पुनः रियासती आन्दोलनों का केन्द्र बना। सन्
1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के अन्तर्गत भारत की राजनीति में एक नया
उत्साह दिखाई देने लगा, फलस्वरूप सभी तत्व चाहे व विप्लववादी हो या
अहिंसावादी, एक झण्डे के नीचे आकर स्वतन्त्रता प्राप्ति के लक्ष्य को
प्राप्त करने के लिए कटिबद्व हो गए। इस प्रकार ब्यावर स्वाधीनता
संग्राम के दौरान प्रशिक्षण एवं आंदोलन का प्रमुख केन्द्र रहा था।
जय ब्यावर - जय भारत
15.08.2024
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