‘‘ब्यावर’ इतिहास के झरोखे
से.......
✍वासुदेव मंगल की कलम से.......
छायाकार - प्रवीण मंगल (मंगल फोटो स्टुडियो, ब्यावर)
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विभिन्नता
बनाम एकरूपता
सामयिक लेख: वासुदेव मंगल ब्यावर सिटी (राज.)
हमारे देश में मत वैभिन्य की एक सुदीर्घ और पुष्ट परम्परा रही है। असल
में विभिन्नता भारतीय जीवन शैली की सबसे बड़ी विशेषता रही है। यह भिन्नता
आचार, व्यवहार, भोजन, वेषभूषा, चिन्तन, ंशारीरिक बनावट, भौगोलिक बनावट,
आस्था-विश्वासों आदि सभी मामलों में रही है। अमेरिका में सब चीजों में
मानकीकरण और एकरूपता का प्रयास है। तात्पर्य यह है कि वहाँ पर प्रख्यात
ब्राण्ड वाला बर्गर एक ही तरह का मिलेगा जबकि भारत में ऐसा नहीं है। एक
ही प्रकार की चीज (वस्तु) में स्वाद अलग अलग होगा। जैसे दो हलवाईयों के
समोसे मे अलग अलग स्वाद होगा।
आज देश मे राजनैतिक विचारधारा का बल भी एकरूपता स्थापित करना है।
केन्द्र में सत्ताधारी दल भी अमेरिका की तरह प्रख्यात ब्राण्ड की
प्रकार की राजनैतिक विचार धारा पर चल पड़ी है। जैसे एक देश - एक कानून,
एक देश-एक टैक्स आदि। ऊपरी सतह पर देखने में तो यह थीम अति अच्छी लगती
है लेकिन सतह से नीचे जाकर समझने पर मालूम पड़ता है कि यह बहुत सोची समझी
योजना के तहत और अपने एजेन्डा को पूरा करने के लिए रचा गया छदम् है। यहाँ
पर सत्ताधारी दल का मकसद राष्ट्रीय एकता को पुष्ट करन का नहीं है, सारे
देश को अपने इशारों पर और अपने हित के लिए चलाने के स्वार्थ की पूर्ति
का है। क्या यह बहुसंख्यकवाद के पैरों तले अल्पसंख्यकवाद को अर्थात्
अल्पसंख्यकों को कुचलने का षडयन्त्र नहीं है? मेरा विनम्र अनुरोध है यहाँ
पर बहुसंख्यक - अल्प संख्यक को हिन्दू-मुसलमान तक सीमित रखकर न सोचें।
इसमें आगे बढ़कर भी देखें-सोचें। उदाहरण के लिए अगर बहुत सारे लोग एक
खास फिल्म को पसन्द कर रहे हैं तो क्या बचे हुए थोडे से लोगों पर भी उसी
फिल्म को पसन्द करने की बाध्यता लागू कर देनी चाहिए? दूसरा एक ओर
उदाहरण अगर बहुत सारे लोग शाकाहारी है तो जो संख्या में उनसे कम है
लेकिन शाकाहारी नहीं है, उनसे अपनी पसंद का भोजन करने का अधिकार छीन
लेना चाहिए ?
हमारे देश में भी केन्द्र की सत्ताधारी दल में यह प्रवृत्ति घर कर गई।
पश्चिमी देश अमेरिका की तरह भारत की राजनैतिक विचारधारा में भी
प्रख्यात ब्राण्ड वाली राजनीति घर कर गई है। इसीलिये सत्ताधारी दल अपने
आप को सक्षम राजनैतिक दल मानने लगा है और पश्चिम की तरह अन्धाधुन्ध
नकलकर राजनीति में हमेशा के लिये अपनी पेंठ जमाने की स्थाई लगातार अल्प
संख्यक राजनैतिक पार्टियों की मजाक बनाकर किनारे लगाकर अपने दल की सत्ता
से हमेशा कायम रखने का निरन्तर प्रयास करता आ रहा है। सत्ताधारी एनडीए
दल की यह कोशिश है कि वह ही केवल सत्ता में बना रहे। अगर बहुत सारे लोग
एक खास राजनीतिक दल को पसन्द करते हैं तो क्या संख्या में उनसे कम ऐसे
लोगों को जो उस राजनीतिक दल की रीति-नीति से सहमत नहीं है, किसी शत्रु
देश में भेज देने की धमकियाँ दे दी जानी चाहिए? अगर कोई राजनीतिक नेता
किसी अत्यन्त लोकप्रिय राजनीतिक नेता के विरोध में, अपनी आवाज बुलन्द
करता है तो क्या उसका उपहासकर करके उसकी छवि को ध्वस्त कर दिया जाता
चाहिए? ऐसी बहुत सारी बातें हैं जो आपको बहुत कुछ सोचने को विवश करती
है। विवश भी करती है और प्रेरित भी करती हैं साथ साथ।
फिर मैं अपनी बात पर लौटता हूँ जो मूल बात मैं कर रहा था मौलिकता की।
हमारी परम्परा विविधता की है और जब हम बुलडोजर वाली एकरूपता का रास्ता
अपनाते हैं तो हम प्रकारान्तर से अपनी ही उस महान और गौरवशाली परम्परा
को ध्वस्त करते हैं। दुर्भाग्य से आज देश में यहीं हो रहा है? कोई
असहमति की आवाज सुनना नहीं चाहता है। कोई प्रश्न करने की आजादी देना नहीं
चाहता है। और आजादी तो खैर कोई क्या देगा, असल बात यह है कि आप प्रश्न
करें, इसे ही कोई सहन करना नहीं चाहता। कुछ समय पहले जो सूचना का
अधिकार हमें दिया गया था, आज उसे पंगु बनाकर रख दिया गया है। आप कोई
सामान्य से सामान्य जानकारी भी प्राप्त नहीं कर सकते। जिनके हाथों में
सत्ता है वे ही यह तय कर रहे हैं, कि आप क्या पूछ सकते है और क्या नहीं।
बल्कि उन्होंने खुले तौर पर यह जता दिया कि आप उनसे कुछ न पूछें। उन्हें
जो बताना उपयुक्त लगेगा वह बता देंगें, बस। और यह बात किसी एक राजनीतिक
दल की सत्ता की नहीं है। हर राजनैतिक दल के सत्ताधीश ऐसा ही कर रहे
हैं।
इधर जो और ज्यादा बुरी बात हुई है वह यह है कि जिनके पास निर्वाध सत्ता
है उन्होंनें एक ऐसा माहौल तैय्यार कर दिया है कि उनके खिलाफ कोई मुँह
भी नहीं खोल सकता। आलोचना करना तो बहुत दूर की बात है, उनको छोड़ किसी
ओर की तारीफ भी आप नहीं कर सकते का मतलब भी अब उनकी आलोचना करना मान
लिया गया है। अगर आप भूल से कभी ऐसी गुस्ताखी करदें तो उन्होंने एक फौज
तैय्यार कर रखी है जो आप पर पिल पड़ने को हर क्षण तैय्यार रहती है। अगर
आप सोशल मीडिया पर शालीन भाषा में कोई मासूम सी - टिप्पणी भी करदें, जो
उन्हें लगे कि उनके आराध्य के विरुद्ध है तो फिर आप मजा चखने को
तैय्यार रहें। उनकी फौज पूरी मुस्तैदी से अपने पालन कर्तव्य का पालन
करने में लग जायेगी। बस आप भूल जाएँ कि किसी शक्तिमान से असहमत होने का
आपको कोई अधिकार है। मत कहो आकाश में कोहरा है और घना कोहरा है यह किसी
की अभिव्यक्ति की आलोचना है और आलोचना भी व्यक्तिगत है तब और भी परेशानी
हो जाती है। अगर आप कहोगे कि आज गर्मी है तो यह बात केवल बस केवल लतीफा
नहीं है।
आज का यथार्थ यह है कि वे चाहते हैं कि आप सब कुछ ही निगाहों से देखें,
जैसा वे चाहते हैं, वैसा ही सोचें और जो उन्हें पसंद है वहीं बात करें।
हम प्रजातन्त्र में रह रहे है। दल जीतते हारते रहते हैं। यह एक
स्वाभाविक प्रक्रिया है। चिन्ता तो इस बात की है कि अपनी सत्ता के मद
में और सदा सर्वदा के लिए सिंहासनासीन रहने के उन्माद में हमारी भिन्नता
को नष्ट किया जा रहा है। यह सब बहुत व्यथित करने वाला है। ‘‘भिन्न -
भिन्न मस्तिष्क में मिन्न-मिन्न मति (विचार) होती है, भिन्न भिन्न
सरोवरों में भिन्न भिन्न प्रकार का पानी होता है, भिन्न भिन्न जाति के
लोगों की भिन्न - भिन्न जीवन शैलियाँ (परम्परा रीति-रिवाज) होती है और
भिन्न भिन्न मुखों से भिन्न भिन्न वाणी निकलती है’’।
अतः यह विभिन्नता ही भारतीय जीवन शैली की सबसे बड़ी विशेषता रही है सदियों
से। इस पद्धति में आप एकरूपता लाने की बात सोच रहे हो, जो असम्भव है,
निरर्थक है। स्कूली पाठयक्रमों में भी और शिक्षण में भी विभिन्नता में
एकता की बात कहकर प्रकारान्तर से हमारी विभिन्नताओं को स्वीकार किया
जाता रहा है, इन पर गर्व भी किया जाता रहा।
अतः लोकतन्त्र के इस विशाल वटवृक्ष मन्दिर में आप अब एकरूपता की बात
कैसे कर सकते हो? यह कोई तानाशाही शासन थोडे ही है जो आप अधिनायकवादी
तरीका थोपकर मनवाओगे। यहाँ तो लोकतन्त्रिय स्वस्थ परम्परा बहस के जरिये
ही देश का हर संसदीय कार्य सम्पन्न होता आया है संसदीय, संविधान
प्रदत्त प्रथा, परम्परा, शक्ति और आचरण से सदा वैसा ही होता रहेगा
भविष्य में भी स्वतन्त्रता से लागू है। आप इस मुद्दे पर क्या सोचते
हैं?
14.08.2023
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