‘‘ब्यावर’ इतिहास के झरोखे
से.......
✍वासुदेव मंगल की कलम से.......
ब्यावर सिटी (राज.)
छायाकार - प्रवीण मंगल (मंगल फोटो स्टुडियो, ब्यावर)
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1 अगस्त 2024 को हटुण्डी की स्थापना का
97वाँ दिवस
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लेखक - वासुदेव मंगल, ब्यावर
आज की तीसरी पीढ़ी के युवाओं को शायद ही यह विदित होगा कि अजमेर के
हटुण्डी विलेज में जो आज बालिकाओं का शिक्षा निकेतन वट वृक्ष की तरह
पल्लवित है वह किसकी देन है।
अतः आज लेखक आपको 1 अगस्त सन् 1927 को बाबा नृसिंहदास द्वारा 97 साल
पहले गाँधी आश्रम के रूप में इस वृक्ष को आरोपित किया गया था उसके बारे
में बता रहे है उसकी सुवासित छाया में आज असंख्य बालिकाएं शिक्षित हो
रही है।
आज के ठीक सो साल पहिले भारत की आजादी की ललक रखने में वाले सेठ
नृसिंहदास अगरवाल नागौर से मद्रास जाकर बर्तन के व्यापार में अकूत
सम्पदा अर्जित करने वाले व्यक्ति के मन मे एकाएक ख्याल आया कि क्यों नहीं
यह धन दौलत भारत माता को आजाद कराने के उपयोग के काम में ली जाये।
यह विचार आते हैं श्री नृसिंहदास अगरवाल सेट ने अपना कारोबार समेट कर
तमाम अर्जित सम्पत्ति महाराष्ट्र के वर्धा आश्रम में आकर महात्मा गाँधी
के चरणों में अर्पित कर दी और पूछा कि अब मेरे लिये देश सेवा का क्या
कार्य है ?
महात्मा गाँधी ने कहा कि अब तो तुम बिल्कुल फक्कड़ बाबा हो गए हो। तब
उनका निक नेम बाबा नृसिंहदास हुआ। गाँधीजी ने कहा तुम अजमेर जाओ। मालवा
से हरिभाऊ उपाध्याय अजमेर आ रहे हैं। तुम दोनों अजमेर मेरवाड़ा राज्य
में भारत की स्वाधीनता की अलख जगाओ।
अतः बाबा नृसिंहदास ने अजमेर आकर । अगस्त सन् 1927 में अजमेर से छ मील
दूर रतलाम मार्ग पर हटुण्डी गाँव में गाँधी आश्रम की नींव रखी जहाँ पर
स्वाधीनता के कार्यक्रम चलाने लगे। 1932-33 में उनको अंग्रेंजी सरकार
ने जेल में डाल दिया। उस समय काँग्रेस मे दो दल थे। बाबाजी ने सोचा नरम
रहकर अंग्रेजों को नहीं झुकाया जा सकेगा उन्होंने ब्यावर को अपनी
कर्मभूमि बनाया ब्यावर क्रान्तिकारी प्रवृत्तियों का गढ़ था। ब्यावर मे
बाबाजी क्रान्तिकारी गतिविधियों में रम गए। ब्यावर में नित नये
क्रान्तिकारी आन्दोलन होते रहते थे। अतः उनकी मनोवृत्ति के अनुकूल
ब्यावर में बातावरण था। ब्यावर मे पंजाब प्रान्त, उत्तर भारत, मध्य
भारत, बम्बई प्रान्त, बंगाल प्रान्त सभी राज्यों के क्रान्तिकारियों का
आना जाना लगा रहता था। सभी तरह की क्रान्तिकारी गतिविधि यहाँ ब्यावर
में श्यामगढ़ में संचालित होती रहती थी। स्वामी कुमारानन्दजी की ब्यावर
कर्मभूमि थी। नेताजी सुभाष बोस बाबाजी को अपने बड़े भाई तुल्य मानते थे।
अतः 1941 मे बाबाजी की सलाह पर ही नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जियाउद्दीन
के भेष में पेशावर होते हुए जर्मनी गए जिनको विदा करके बाबा नृसिहदास
भी बर्दवान स्टेशन गए।
हांला कि परिस्थितियाँ बदली सुभाष बाबू आजाद हिन्द फौज के बैनर तले
आजादी की लड़ाई लड़ते हुए मणिपुर के गारो की पहाड़ी तक आ गए थे जहां पर
उन्होंने आजाद भारत का झण्डा भी फहरा दिया था। परन्तु युद्ध की बाजी
पल्टी।
जापान ने चीन सागर मे अमेरिका का जहाज समुद्र में डूबो दिया। अतः
अमेरिका ने गुस्सा खाकर जापान के दो शहरों क्रमशः हेरोशिमा और नागासाकी
शहरों पर परमाणु गिराकर 6 अगस्त और 9 अगस्त 1945 को तहस नहस कर दिये
परिणाम स्वरूप 15 अगस्त 1945 को जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया। अतः
नेताजी सुभाष बाबू भी रसिया के पूर्वी तट के मन्चूरिया प्रान्त जाकर
भूमिगत हो गए। कारण अगर वे उस वक्त भारते आते तो भारत सरकार उनको
ब्रिटिश गवर्नमेण्ट को सौंप देती।
भारत की आज़ादी रामराज के सपने संजोये हुए रह गई। उस वक्त की रामराज
पार्टी भी भँग कर दी गई। भारत की आजादी देश के बँटवारे के साथ
दुखदपूर्ण हई। उस समय का भीवत्स नजारा, रोंगटे खड़े कर देता है। आज भी
देश ऐसे दारुण क्रन्दन से ऊबर नहीं पाया है।
ऐसे वातावरण मं बाबाजी का दम घूटने लगा। उन्होंने तो कभी सोचा भी नहीं
था कि देश की आजादी पराधीनता से भी बदत्तर होगी।
अतः इसी ऊहापोह में बाबाजी भी अपने परम शिष्य अजमेर में कृष्ण गोपाल
गर्ग के घर 22 जुलाई सन् 1957 को संसार को अलविदा कह गए। बाबाजी जीवनभर
चलते जोगी की तरह रहे।
आजादी की लड़ाई में सर्वश्री विजय सिंह पथिक, पंडित अर्जुनलाल सेठी,
स्वामी कुमारानन्द और बाबा नृसिंहदास की चौकड़ी एक ही धारा में बही और
चारों ही लगभग समान नियति भोगते हुए दुनिया से विदा हुए।
ऐसे महान् व्यक्तित्व को लेखक का शत् शत् नमन।
01.08.2024
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