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‘‘ब्यावर’ इतिहास के झरोखे से.......

✍वासुदेव मंगल की कलम से.......
छायाकार - प्रवीण मंगल (मंगल फोटो स्टुडियो, ब्यावर)

 
कल्पानाओं को साकार करते हैं मांगलियावास के कल्पवृक्
लेखकः वासुदेव मंगल
सम्पूर्ण भारतवर्ष में प्राचीनकाल से जहाँ नीम, पीपल व वट वृक्ष की पूजा इनके अमूल्य गुणों को लेकर की जाती रही है वहीं माँगलियावास में कल्पवृक्ष के जोडे़ की पूजा मनोकामनाओं को पूरी करने के कारण की जाती है और यही वजह है कि कल्पवृक्ष का यह जोड़ा सम्पूर्ण भारतवर्ष में ख्याती पा चुका है। कल्पवृक्ष यानि कल्पानाओं को साकार करने वाला वृक्ष। कल्पवृक्ष को स्वर्ग की देन कहा गया है। यह जोड़ा पिछले आठ सौ वर्षों से श्रद्धालुओं की मनोकामनाओं को पूरी कर रहा है। यह कल्पवृक्ष का जोड़ा हजारों हजार श्रद्धालुओं की आस्था का केन्द्र है। इसलिए यहाँ प्रतिदिन श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। यहाँ पर प्रतिवर्ष श्रावण मास की अमावस्या को विशाल एक दिवसीय धार्मिक मेला लगता है।

ऐसी मान्यता है कि आठ सौ वर्ष पूर्व एक तेज तर्राट तपस्वी अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए स्वर्ग से अपनी तान्त्रिक विद्या के बल पर एक शिवलिंग व कल्पवृक्ष को लेकर आकाश मार्ग से ग्राम के उपर से गुजर रहा था तो ग्राम में उस समय डेरा डाले हुए दो सूफी सन्त मंगलसिंह और उसके शिष्य फतेहसिंह ने अपनी वैदिक शक्तियों के बल पर पंचमुखी शिवलिंग व कल्पवृक्ष को यहीं धरती पर उतरवा लिया। तभी से यह कल्पवृक्ष व सदर बाजार में स्थित शिवलिंग अपने परोपकारी गुणों तथा मनोकामनाओं को पूर्ण करने के लिये पूज्यनीय बने हुए है। इन्हीं वृक्षों के पास स्थित दो टेकरियों पर दोनों सूफी सन्तों की मजारें है। इन्हीं दोनो सन्तो में से एक मंगलसिंह के नाम से कालान्तर में ग्राम का नाम माॅंगलियावास पड़ा। ब्यावर से उत्तर की 27 किलोमीटर की दूरी पर अजमेर मार्ग पर मांगलियावास ग्राम में पींसागन मार्ग पर स्थित इन वृक्षों में एक को राजा व दूसरे वृक्ष को रानी के नाम से सम्बोधित किया जाता है। राजा वृक्ष में लिंग व रानी वृक्ष में योनि की आकृति आज भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। यहीं पर मौजूद एक छोटा कल्प वृक्ष है जो राजकुमार के नाम से जाना जाता है।
जानकारी के मुताबिक कल्पवृक्ष की उँचाई करीबन 23 से 25 मीटर है जबकि तने की मोटाई 10 मीटर है तथा दोनो वृक्ष करीब 30 मीटर के फासले पर स्थित है।
ये वृक्ष विशाल, भव्य व आकर्षक होने के कारण अपनी उपस्थिति का स्वॅंय ही अहसास करते है और मनुष्य को सौभाग्य प्रदान करते है। यह वृक्ष सन्तान प्राप्ति और विवाह जैसी मंगलकामनाओं को पूर्ण किये जाने के लिए प्रसिद्ध है। श्रावण मास में इस वृक्ष की पूजा की जाता है। हरियाली अमावस्या के दिन को ईच्छापूर्ति दिवस भी कहा जाता है। इस दिन राजा रानी कल्पवृक्ष के नीचे शुद्ध मन से दर्शन करने पर मनोकामना माँगने वालों की कामना अवश्य पूरी होती है। यहाँ पर इस दिन कुँवारी कन्याएँ राजा रानी कल्प वृक्ष को शुद्ध जल से सींचती है, मोली बान्धती है और कुमकुम का तिलक लगाती है तथा चावल का प्रसाद चढ़ाती है व दोनों वृक्षों के परिक्रमा लगाती है। अविवाहित किशोरियां सुयोग्य वर के लिये रानी रूपी वृक्ष पर मोली बाँधकर उसकी छाल अपने साथ ले जाती है एवं उसे तब तक अपने पास रखती है जब तक उनकी मनोकामना पूर्ण नहीं हो जाती।
यहाँ पर सोमवार एकादशी व अमावस्या को विशेष भीड़ लगी रहती है। श्रद्धालु दूर दूर से आकर यहाॅं सवामणी भी चढ़ाते है। मेले के दिनों में गा्रम पँचायत द्वारा बिजली, पानी व छाया की माकूल व्यवस्था की जाती है व तीर्थ स्थल को रोशनी से सजाया जाता है। परिवहन निगम की तरफ से मेले के दौरान श्रद्धालुओं की सुविधा के लिये अतिरिक्त बसें चलाई जाती है। कानून व्यवस्था हेतु पुलिस द्वारा सुरक्षा व्यवस्था की जाती है।
लेखक यह महसूस करता है कि भविष्य में राज्य सरकार द्वारा इस तीर्थ स्थल को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जाना चाहिये ताकि इसके नैसर्गिक महत्व के साथ साथ धार्मिक महत्व भी बना रहे।
 
इतिहासविज्ञ एवं लेखक : वासुदेव मंगल
CAIIB (1975) - Retd. Banker
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