‘‘ब्यावर’ इतिहास के झरोखे
से.......
✍वासुदेव मंगल की कलम से.......
छायाकार - प्रवीण मंगल (मंगल फोटो स्टुडियो, ब्यावर)
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इण्डिया
बनाम भारत
सामयिक लेख: वासुदेव मंगल, ब्यावर सिटी (राज)
लोकतन्त्र में दो विचार वाली सशक्त पार्टियाँ होती है। एक शासन में होती
है व दूसरी विपक्ष में। जहाँ तक भारत के लोकतन्त्र का सवाल है, तो
काँग्रेस पार्टी स्वतन्त्रता के समय प्रजातन्त्रिय पार्टी रही। अतः
सत्ता शासन इसी के अधीन रही। चूँकि भारत स्वतन्त्र हुआ ही था जिसका नाम
देश का क्या हो इस प्रकार गर्मागर्म बहस दिनांक 18 सितम्बर 1949 को हुई
और यह तय किया गया कि इण्डिया के नाम से व भारत के नाम से, अर्थात् दोनों
नाम से ही देश पुकारा जावेगा।
सन् 2014 में फासीसवादी सरकार सत्ता मे आई। उसकी विचार धारा कांग्रेस
से भिन्न रही है। अतः सत्ता में आते ही शासन प्रणाली की भिन्नत्ता पर
अमल करना शुरू किया। कांग्रेस पार्टी की शासन प्रणाली से एकदम भिन्न
तरीका शुरू किया। अतः सबसे पहले तो शासन के तौर तरीकों में तब्दीली की।
प्लानिंग कमीशन (योजना आयोग) भंग कर उसके स्थान पर पालिसी कमीशन (नीति
आयोग) बनाया गया। इसकी सारी व्यवस्था (सिस्टम) में आमूल चूल परिवर्तन
किया गया। चूँकि भारत बहु संस्कृति वाला देश पिछले पाँच हजार साल से चला
आ रहा है। उस समय आरम्भ में आर्य और अनार्य की पहचान थी। हर तबके का
शासक अपने अपने हिसाब से देश पर शासन करता रहा। दूसरी सहस्त्राब्दि में
लम्बे समय तक युगलों ने राज किया। सत्रहवीं शताब्दी के अन्त में
अंग्रेजी सल्तनत का राज कायम हुआ सो जिसने लगभग दो वर्षों तक भारत पर
राज किया। चूँकि बरतानिया की हुकुमत का विश्व साम्राज्यवाद रहा भारत
उपनिवेश में। अतः 15 अगस्त 1947 ब्रिटिश हुकुमत ने भारत को आज़ादी
प्रदान की परन्तु हिन्दू मुस्लिम धार्मिक आधार पर देश के दो हिस्से कर
पाकिस्तान एवं हिन्दुस्तान।
18 सितम्बर 1949 को तय की गई प्रदेश के नाम की इण्डिया व भारत दोनो नाम
की व्यवस्था अब तक यथावत छियेत्तर साल से बदस्तूर चल रही थीं। अब शासक
दल एन.डी.ए. नेशनल डेमोक्रेटिक एलायन्स के भारतीय जनता पार्टी शासन घटक
को एकाएक अचानक देश के दो नामों से एतराज महसूस हुआ है। भारतीय जनता
पार्टी नेपथ्य मे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जो अपंजीकृत रणनीतिक संस्था
है से प्रायोजित और समर्थित पार्टी से हैं। चूँकि 76 वर्ष के देश के
शासन में प्रत्येक सिस्टम (व्यवस्था) के क्षेत्र में दोनों ही नामों
में से अधिकतर इण्डिया नाम से सारी व्यवस्था जानी पहिचानी जाती रही
हैं। जैसे शासनिक, प्रशासनिक, आर्थिक, वित्तिय, मौद्रिक, रक्षा, शिक्षा,
चिकित्सा, वैदेशिक मामलों मे सभी में इण्डिया के नामों से देश को जाना
जाता रहा है। इस बीच शासक दल ने दो बार तो नोट बन्दी करदी बिना किसी
औचित्य के और एक बार कर प्रणाली में आमूल चूल परिवर्तन जी एस टी अर्थात्
वस्तु एवं सेवाकर के नाम से एक नया ही देश की जनता पर सन् 2017 की
जुलाई से केन्द्रिय सरकार बर्बस जबरिया अपने पास एकाधिकार रखते हुए थोपा
है कि एक देश एक कर के नाम से। अब शासन करने वाली केन्द्रिय सरकार
भारतीय जनता पार्टी बरबस जबरिया एक देश एक नाम भारत देश नाम थोपने पर
आमादा है। इसके लिये इसने अचानक संसद का विशेष अधिवेशन दिनांक 18
सितम्बर 2023 से 22 सितम्बर 2023 तक पाँच दिन का इस आशय से बिना कारण
बताए बुलाया है बिना एजेन्डे के इससे ऐसा प्रतीत होता है कि देश की
वर्तमान केन्द्रिय सरकार संविधान प्रदत्त लोकतन्त्र की खुल्लम खुल्ला
अवहेलना कर दिनांक 8 सितम्बर से 10 सितम्बर 2023 तक भारत में होने वाले
जी 20 देशों के सम्मेलन मे डिनर निमन्त्रण कार्ड पर बिना संसद मे पारित
प्रस्ताव लाए हुए एक तरफा सरकार अपने स्तर पर प्रेसीडेण्ट ऑफ भारत के
नाम से प्रषित किये है बजाय प्रेसीडेन्ट ऑफ इण्डिया के नाम के जो बहुत
बडी कोन्सीप्रेसी (साजिश) सरकार की दिखाई दे रही है कि लुटियन्स
क्षेत्र में नये भवन मे संसदीय कार्य का श्री गणेश किये जाने के बहाने
से विशेष सत्र बुलाया गया बोल रही है सरकार जो कहीं भी लिखित मैं नहीं
दर्शाया गया है। केवल जवानी जमा खर्च है। इस तरह लोकतन्त्र का खुल्लम
खुल्ला उपहास किया जा रहा है अधिनायकवादी रवैय्ये से जो एक गैर
जिम्मेदाराना कार्य प्रतीत हो रहा है केन्द्रिय सरकार के पार्ट पर।
ऐसा लगता है सरकार फिर से तीसरी बार नोटबन्दी न कर दे क्योंकि भारतीय
मुद्रा में अधिकतर इण्डिया नाम लिखा हुआ है। इसी प्रकार देश के तमाम
राज्यों के शासकीय, अर्धशासकीय, शिक्षा, चिकित्सा, रक्षा, खेल, वैदेशिक,
आर्थिक, वित्तिय मौद्रिक संस्थानों के नाम भी इण्डिया के नाम से चले आ
रहे है। सरकार देश के जनता से जुड़े हुए ज्वलन्त मुद्दों से परहेज कर रही
है और गैर जरूरी मुद्दों को उछाले जा रही है पिछले नौ वर्षों से जिनका
अवाम से कोई लेना देना नहीं है। जैसेः- रोटी-रोजी देना, महँगाई को कम
करना आदि। सरकार देश की संस्थाओं को बेचे जा रही है।अट्ठाईस सरकारी
बैंकों से सोलह बैंक बन्द करके मात्र बारह सरकारी बैक रख दिये। बैंकों
से बड़े बड़े पूँजीपतियों को बैंकों से (सरकारी) से अनाप शनाफ़ लोन दिलाकर
उनको देश से बाहर भगा दिया जाता है फिर जनता की पूंजी जो बड़े बड़े धन्ना
सेठों को दी जाती है सरकार द्वारा उन ऋृणों उसको नॉन परफोरमेन्स एसेट
में ट्रान्सफर करवा दिया जाता है और फिर इस प्रकार की रकम को बड़ी भारी
रकम में डिस्काउण्ट एकाउण्ट अर्थात् बट्टे खाते मे डाल दी जाती है जो
डूबतऋण कहलाते है। इस प्रकार देश को विदेशो से भारी कर्जे के बोझ से
लादा जा रहा है फिलहाल एक सो अट्ठावन लाख करोड़ का भारत पर कर्ज है ऐसी
थोथी होशियारी से देश बर्बाद हो रहा है। देश में बेरोजगारी, भूखमरी,
बेहताशा, कमरतोड़ महँगाई, कुपोषण, अशिक्षा, बिमारी आदि से देश ग्रस्त है
और सरकार गौण मुद्दों पर राजनीति किये जा रही है। अभी हाल ही में एक
देश एक चुनाव का शिगुफा छोड़ दिया है। कभी यूसीसी का मुद्दा छेड़ती है।
यह देश चलाने का तरीका नहीं है। व्यक्ति स्वयं प्रधान मन्त्री अपने नाम
से महिमा मण्डित होता है यह परिपाटी गलत है। ऐसा नहीं होना चाहिये।
लोकतन्त्र में पार्टियाँ तो शासन में बदलती रहती है। इन्होंनें अपना
एकाधिकार शासन में लोकतान्त्रिय प्रणाली में कैसे मान लिया। अतः सरकार
अराजकता की ओर बढ़ रही है। यह तो वर्तमान की केन्द्रिय सरकार का सन्
2047 तक सत्ता में बने रहने का अनुमान मात्र है। दोनों नामो से देश
बेहिचक चल रहा है। कोई परेशानी नहीं है। अभी हाल ही में सरकार ने एक
तरफ तो स्वतन्त्रता के पिच्चेवर साल होने पर अमृतकाल महोत्सव पूरे साल
मनाया और अब अचानक एकाएक इण्डिया के नाम से सरकार को एतराज हो रहा है।
यह तो देश मे व्यवधान पैदा किये जाने की जैसी कार्यवाही जान पड़ती है जो
देश सुचारू रूप से चल रहा है। अगर सरकार जिस आशय के लिये शासन में आई
है तो लोक हित के काम तो सरकार को करने के लिये ही तो देश की जनता ने
उनको सत्ता सौंपी है। और अगर सरकार जनउपयोगी काम न कर अनुचित काम करेगी
तो फिर प्रजा ही सर्वाेपरि है। उन्होंने उनको सत्ता में बैठाया है तो
सत्ता विहीन भी कर सकती है। अतः लोकतन्त्र में प्रजा ही चुनावी नतीजोें
को बदलने की शक्ति भी रखती है सरकार को यह नहीं भूलना चाहिये। सब जगह
भारत नाम का उपयोग एकाएक किया जाना सम्भव नहीं है। हर जगह इण्डिया शब्द
में संशोधन के लिए सभी संसदीय प्रणाली में बार-बार जगह-जगह प्रस्तावों
के जरिये तब्दीली करना बड़ा टेढा काम है जो कठिन ही नहीं असम्भव प्रतीत
भी होता है। राज्य संघों में सारी शासन व्यवस्था बुरी तरह प्रभावित होगी।
इन्होंने यह कैसे मान लिया कि सन् 2047 तक ये ही लगातार राज करेंगें।
राज करने का यह तो कोई पैमाना नहीं है। मात्र अनुमान के आधार पर शासन
प्रणाली नहीं बदली जाती है। अगर ऐसा करना है कि इण्डिया शब्द देश का
हटाकर केवल भारत करना है तो पूरे देश में जनमत संग्रह कराकर बहुमत से
यह कार्य फिर भी सम्भव हो सकता है वरना कदापि नहीं। और पूरे देश मे इस
कार्य के लिये वर्तमान की केन्द्र की भारतीय जनता पार्टी की सरकार जनमत
संग्रह करवा नहीं सकती है क्योंकि अलग अलग राज्यों में अलग अलग पार्टी
की सरकारें सत्ता में है? अतः ऐसा किया जाना असम्भव प्रतीत होता है।
फालतु समय जनता का जाया किया जा रहा है क्योंकि इस सरकार ने जो सालों
में जनता के मुद्दों से सम्बन्धित तो कोई काम ही नहीं किया है। जैसेः
मँहगाई और बेरोजगारी जिससे जनता का ध्यान भटकाने के लिए फालतु के मुद्दे
समय समय पर सरकार उछालती रहती है। परन्तु अब जनता भी जागरूक हो गई है
जिससे सरकार डरी हुई है। इसीलिए भारत नाम का मुद्दा उछाला गया है ताकि
जनता इस मुद्दे में उलझकर रह जाय।
संसद भवन में संविधान की जो पुस्तक रखी हुई है उसके मुख पृष्ट पर
कन्स्टीट्यूशन ऑफ इण्डिया लिखा हुआ है उसमें तथा उसके अन्दर जहाँ जहाँ
इण्डिया शब्द का प्रयोग हुआ उन सब जगहों पर इण्डिया की जगह भारत शब्द
किया जाना एक बहुत बडी बिना मतलब की परेशानी है। अरे यह सब अंग्रेजों
ने तो की नहीं। भारत के संविधान निर्माताओं ने अपने ही लोगों ने यह सब
कुछ किया है और बहुमत से 18.09.1949 को प्रस्ताव पास कर किया है तो आप
अंग्रेजों द्वारा थोपी गई थोपी गई गुलामी की निशानी कैसे कह सकते है।
यह तो हमारे लोगों द्वारा ही तैय्यार किया गया संविधान है फिर इसमें 76
साल बाद अचानक ऐसा करने का विचार एकदम अपरिहार्य सा प्रतीत होता है जो
पूरे देश के प्रायः सभी संस्थानों मे परिवर्तनीय असम्भव सा प्रतीत होता
है। जब 76 साल तक कोई फर्क नही पड़ा तो एकाएक कौनसा पहाड़ टूटकर गिर
पड़ेगा। यह तो मात्र मन का बहम है जिसे मन से निकाल देना चाहिये। ऐसा
करना ही सबसे बहतरीन रहेगा तरीका है। अतः इस स्टेज पर ऐसे सारहीन
मुद्दे को समाप्त किया जाना चाहिये और देश हित में काम किया जाना
चाहिये लेखक की दृष्टि में यह तरीका ही उचित रहेगा। आपको अपने नहीं है।
लोगों के द्वारा किये गए काम पर ही विश्वास नहीं रहा एकाएक। यह काम
अंग्रेज़ों ने तो किया नहीं है।
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