‘‘ब्यावर’ इतिहास के झरोखे
से.......
✍वासुदेव मंगल की कलम से.......
ब्यावर सिटी (राज.)
छायाकार - प्रवीण मंगल (मंगल फोटो स्टुडियो, ब्यावर)
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आज 30 जनवरी सन् 2024 को महात्मा
गाँधी की 76वीं पुण्य तिथि पर विशेष
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लेखक: वासुदेव मंगल
महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्टूबर सन् 1869 को काठियावाड़ प्रदेश के
पोरबन्दर स्थान में, रियासत के दीवान लाला कमरचन्द के घर हुआ था। आपके
पिताजी तो साधु स्वाभाव के थे हर आपकी माता पुतलीबाई भी बड़ी ही
धर्मपरायण भारतीय महिला थी। माता-पिता ने बच्चे का नाम करमचन्द रक्खा।
गांधी इनका गोत्र था।
काठियावाड़ देश की रीति के अनुसार बच्चे के नाम के उपरान्त पिता का नाम
लगाकर इनका पूरा नाम मोहनदास करमचन्द गांधी हुआ।
माता-पिता ने सात वर्ष की अवस्था में उनकी सगाई और 14 वर्ष की अवस्था
में विवाह कर दिया था। उन दिनों छोटी अवस्था में विवाह करना बुरा नहीं
समझा जाता था। हाँ गांधीजी पढ़ते भी थे और गृहस्थ भी थे।
आपके पिताजी का स्वर्गवास हो गया था। एण्टेंªस पास करके कुछ दिनों
कालेज में पढ़कर बैरिस्टरी के लिए 4 सितम्बर, 1888 को विलायत चले गए।
विलायत में आप बडे़ ही सदाचारी और आस्तिक बने रहे।
12 जून 1891 में बम्बई में वकालत करने लगे। लेकिन आपकी वकालत नहीं चली।
अतः आप राजकोट आकर अर्जी दावे लिखकर अपना निर्वाह करने लगे।
पोरबन्दर की ‘मेमल फर्म’ नाम कम्पनी अफ्रिका में 40 हजार पौण्ड के दावे
की देखरेख के लिये 105 पौण्ड की महनताने की शर्त पर उन्हें अफ्रीका भेज
दिया।
अफ्रीका में गोरों का राज था। अतः नस्ल भेद के आधार पर वे काले (अश्वेत)
लोगों का पग-पग पर अपमान करते थे। अतः प्रिटोरिया में रहते हुए गांधीजी
को गोरों की काफी अवहेलनाएँ झेलनी पड़ी।
1897-1899 में जब प्लेग फैला तो आपने जनता को बड़ी सहायता पहुँचाई। भारत
में अकाल पड़ा तो आपने अफ्रीका से चन्दा एकत्रित कर अकाल पीड़ितों की
सहायता के लिये भेज। वहाँ आपने इण्डियन ओपीनियन नाम का पत्र निकाला।
1901 में आप हिन्दुस्तान चले आये और कांग्रेस में भाग लेने लगे। सन्
1903 में आप वापिस अफ्रीका लौट गए, क्योंकि वहाँ के हिन्दुस्तानियों को
आपकी सेवाओं की जरूरत थी।
1 अगस्त सन् 1907 में सबसे पहली सत्याग्रह की लड़ाई अफ्रीका में ही लड़ी
थी। आपने वहां पर एक ‘ब्रिटिश इण्डियन एसासियेशन’ स्थापित की और कुछ
भूमि लेकर एक प्रेस भी जारी कर दिया।
अफ्रीका की सरकार के विरूद्व भारत में भी अत्याचारों के खिलाफ बडे़ जोर
का आन्दोलन उठ खड़ा हुआ। महात्मा गोखले ने बहुत सा रूपया हिन्दुस्तान से
संग्रह करके गाँधीजी के पास अफ्रीका भेजा। अफ्रीका में इस सत्याग्रह
में उनके अंग्रेज साथी मिस्टर हैनरी पालेक और जर्मन मित्र कैलेनबेक भी
गिरफ्तार किये गए। अन्त में सरकार को विवश होकर समझैता करना पड़ा।
दीनबन्धु ऐण्ड्रयूज की मध्यस्था में आठ वर्ष तक सत्याग्रह संग्राम चलने
के बाद 30 जून सन् 1914 में यह समझौता हुआ। गांधीजी ने इस सत्याग्रह
में बडे़ बडे़ कष्ट सहे। उनसे जेल में पाखाने की भरी बाल्टियाँ उठवाई।
चक्कियाँ चलवाई गई। सड़के कुटवाई गई। कभी-कभी तो सड़के कूटते-कूटते
गांधीजी के हाथों से लहू बह चलता था और वे मूर्छित होकर गिर पड़ते थे।
कुन्दन की परख आग में तपने पर ही होती है, और मेहन्दी पत्थर पर पिसने
के पश्चात् ही प्रेमियों के हाथ रचाती है। इसी प्रकार त्याग और तपस्या
में ही लोग महात्मा बनते है, सिर के बाल मुँडवाने और भगवे वस्त्र पहनने
से नहीे।
महात्मा गांधी वास्तव में महात्मा थे। अफ्रीका का सत्याग्रह आन्दोलन
समाप्त होने के बाद, गांधीजी महात्मा गोखले से, जो बीमार पड़े थे, मिलने
के लिए भारत लौट आये। यहाँ बम्बई और पूना में आपका बड़ी धूम धाम से
स्वागत हुआ।
सन् 1915 में महात्मा गांधी ने अहमदाबाद में साबरमती नदी के तट पर
सत्याग्रह आश्रम स्थापित किया। आश्रम स्थापित करने से पहले आप गुरूकुल
काँगड़ी और शान्ति निकेतन में महात्मा मुन्शाीराम (स्वामी श्रद्धानन्द)
तथा कवीन्द्र रविन्द्र से मिले। गुरूकुल काँगड़ी में आपको जो मानपत्र
दिया गया, उसी में सबसे पहले आपके लिए ‘महात्मा’ शब्द का प्रयोग किया
गया। तभी से आप कर्मवीर गांधी की जगह महात्मा गांधी के नाम से प्रसिद्ध
हुए।
गांधीजी के भारत में सत्याग्रह आन्दोलनः-
पहला आन्दोलन:- भारत में आकर गांधीजी ने देश सेवा का बीड़ा उठाया। बिहार
में गोरे जमींदार गरीब किसानों पर बडे़ अत्याचार करते थे। किसानों के
लिए यह आवश्यकता था कि अपनी भूमि के तीन-बटा बीस भाग में गोर जमींदारों
के लिये नील की खेती अवश्य करें। गांधीजी सन् 1917 में बिहार के पटना,
मुज्जफरपुर और अम्पारन नगरों में गए। चम्पारन के डिस्ट्रिक्ट मजिस्टेªट
ने आपको गिरफ्तार कर लिया। बाद में सरकार ने आपको छोड़ दिया और वहाँ पर
काम करने की अनुमति भी दे दी। बम्बई से देश सेवकों को बिहार बुलाकर
गाँवों की स्वच्छता, शिक्षा, रोग निवारण आदि काम किया। तभी से गांवों
के किसान गांधीजी का मान करने लगे। इस प्रसास में वहां के किसानों को
गोरे जमींदारों के अत्याचारों से मुक्ति मिल गई। गांधीजी का कथन ही
बिहार के लिये आज्ञा थीं।
दूसरा आन्दोलन:- गांधीजी महात्मा थे। वे किसी का दुख नहीं देख सकते थे।
गरीबों को देखकर उनका हृदय प्रतीभूत हो जाता था। चम्पारन आन्दोलन के
बाद गांधीजी ने अहमदाबाद जाकर मिलों के मालिकों और गजदूरों में 21 दिन
तक भूख हड़ताल करके फैसला करवा दिया।
तीसरा आन्दोलन:- आप बम्बई प्रान्त के खेड़ा स्थान पर पहुँचे। खेड़ा के
किसानों की फसल नष्ट हो गई थी। कानून के हिसाब से लगान की छूट होनी
चाहिये थी। सरकार लगान छोड़ने को राजी नहीं हुई।
गांधीजी ने खेड़ा के किसानों को सत्याग्रह के लिये राजी किया। तब सरकार
ने किसानों का लगान माफ किया।
अब तो गुजरात के किसानों को भी यह ज्ञात होने लगा कि जब अपनी पर आ जाते
हैं, तो संसार की बड़ी से बड़ी शक्ति भी उन्हें दबा नहीं दे सकती।
महात्मा लोग विचित्र होते हैं वे सदा न्याय का पक्ष लेते हैं, चाहे वह
सरकार की तरफ से हो, चाहे जनता की तरफ से। तभी तो महात्मा गांधी मोम से
भी अधिक नरम और बज्र से भी अधिक कठोर थे।
चौथा आन्दोलन:- महात्मा गांधी ने यूरोप के महासमर में अर्थात् प्रथम
विश्व युद्ध में असहयोग अंग्रेजी सरकार के लिये रंगरूट भरती करवाये थे।
सन् 1921 में असहयोग आन्दोलन के जरिये गोरी सरकार को झूकाया था।
पाँचवा आन्दोलन:- यह आन्दोलन भी सफल रहा।
सविनय अवज्ञा का आन्दोलन
नमक कानून तोड़ना
हिन्दू सुसलमानों के झगडे़ हुए तब गांधीजी ने देहली में 21 दिन का
उपवास किया। 21 सितम्बर सन् 1932 में जेल में ही आमरण अनशन करने की
सूचना सरकार को दे दी थी। महात्मा गांधी ने लन्दन की गोल मेज सम्मेलन
में सरकार का नीतिका हिन्दूओं से दलित जातियों को चुनाव में अलग अधिकार
दिये जाने का घोर विरोध किया और सरकार को इस अलग चुनाव की नीति पर
झुकाया। दलित जाति की रक्षा के लिये ‘हरिजन सेवक संघ’ की स्थापना हुई।
अब यह संघ सारे हिन्दुस्ताान में काम कर रहा है। यह बात सन् 1934 की
है। गांधीजी कहा करते थे कि हरिजन हमारे भाई हैं उनकी भी हमारी जैसी ही
जान है और उनका भी वहीं परमात्मा है जो हमारा है। फिर हम उन्हें
प्रान्तों, प्रदेशों और केन्द्र में अछूत क्यों समझे?
जो काम पिछले सो वर्षों में नहीं हुआ वह गांधी जी के इस हरिजन आन्दोलन
से एकाएक हो गया।
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यहां पर लेखक गांधीजी द्वारा इस आन्दोलन के सिलसिलें में 8 जुलाई सन्
1934 में ब्यावर की यात्रा भी की जो शत प्रतिशत सफल रही। इस सन्दर्भ
में गांधीजी को स्वामी कुमारानन्दजी द्वारा चम्पालालजी के अमले में
ठहराया गया था। गांधी जी उस वक्त चांग गेट स्थित चर्च के नीचे हरिजन
बस्ती में भी गए तथा मिशन ग्राउण्ड में आम सभा को भी सम्बोधित किया। उस
समय ब्यावर की ओसवाल जाति के समाज द्वारा उनको मान-पत्र व हरिजन
अछूतोद्धार हेतु एकत्रित धन राशि भी भेंट की गई। गांधीजी की ब्यावर में
यह यात्रा सफल रही।
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अन्त में गांधीजी ने सन् 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो आन्दोलन का
बम्बई में सफल संचालन किया। हालांकि इस समय अंग्रेजों की दमनकारी नीति
के तहत् सभी आन्दोनलनकारियों को जेल में डाल दिया लेकिन शीघ्र ही इनको
छोड़ना पड़ा।
गांधी जी खादी को दरिद्रनारायण (दरिद्रों का अन्नदाता परमात्मा) कहते
थे। वे कहते थे कि खादी ही भारत के सब कष्टों का निवारण करेगी। खादी
दीन-हीन लोगों, विधवा और अनाथ स्त्रियों को भोजन और वस्त्र देगी।
इसीलिये उन्होनें सारे भारत का दौरा करके दरिद्रनारायण के लिये 10 लाख
चन्दा एकत्र किया था। उस धन से आपने वर्धा में ‘आखिल भारत वर्षिय चरखा
संघ’ (आल इण्डिया स्पिनर्स एसोसियेशन) को स्थापित किया था।
यह संघ खादी प्रचार के लिये भारत में स्थान-स्थान पर अपने धन से खादी
केन्द्र स्थापित करता है, खादी भण्डार स्थापित करने वालों की धन से
सहायता करता है। खादी भण्डारों के लिये भाव निश्चित करता है और उनके
हिसाब किताब की देखभाल करता है। संघ खादी भण्डारों को प्रमाण पत्र (सर्टिफिकेट)
भी देता है।
गांधीजी ने खादी पर इसलिये बल दिया कि हमारा रूपया हमारे देश में रहे
और हमारे देश में ही गरीब धूनियों, जुलाओं, कातने वालों और रंगारेजों
को इसका लाभ पहूंचे। इस प्रकार उन बेचारों को भी पेट भरने को भोजन और
तन ढकने को वस्त्र मिल जाये। गांधीजी कहते थे खादी पहनो, हाथ का कुटा
चावल और हाथ का बना गुड़ खाओ। मशीनों का बहिष्कार करों। क्योंकि हाथ से
बनी हुई वस्तुओं का रूपया गरीबों के पास पहुंचता है जबकि मशीन से बनी
हुए वस्तु लेकर हम एक धीन व्यक्ति को ओर धनी बनाते है। यद्यपि गांधीजी
को धनवानों से घृणा न थी। वे तो किसी से भी घृणा नहीं करते थे।
गांधीजी कांग्रेस के सदस्य नहीं रहे थे, परन्तु हर समय कांग्रेस की सेवा
करने के लिये तैयार रहते थे। कोन्सिलों में मन्त्री पद ग्रहण करने की
उलझन भी गांधीजी ने ही सुलझाई थी।
गांधीजी तो भारत के प्राण और भारत के बिना मुकुट के सम्राट थे। सारा
भारत उन्हें पूजता था। इतना ही नहीं वे संसार के सबसे बडे महापुरूष थे,
क्योंकि वे सारे संसार में प्रेम और शान्ति का राज स्थापित करने का सतत्
प्रयास कर रहे थे। संसार के लोग तो इस महात्मा का दर्शन करने के लिये
लालायित रहते थे। लेकिन हम लोगों में से एक ऐसा नरपिशाच निकल आया जिसने
पूज्य बापू का वध कर दिया। महात्माजी का अन्त भी बड़ा महान् हुआ। 30
जनवरी सन् 1948 को सांयकाल 5 बजकर 5 मिनट पर दिल्ली के बिरला भवन में
प्रार्थना स्थान की ओर अग्रसर पापी नाथूराम गोड्से ने तीन गोलियां मार
दी। बापू धड़ाम से गिर पडे़ और उनके मुख से केवल हरे राम-हरे राम निकला।
निसन्देह गाँधीजी की विचारधारा सत्य अहिंसा कर्तव्यपरायणता सहनशीलता एवं
संवेदनशीलता पर आधारित थी जिसके आत्मबल पर उन्होंने भारत को अंग्रेज़ों
से आजादी दिलाई थीं।
अतः यह बात प्रमाणित होती है कि अगर आदमी के अन्दर सत्य, अहिंसा,
कर्तव्य परायणता, सहनशीलता एवं संवेदनशीलता उपस्थित हो तो वो अपने देश
में सुधारवादी, अहिंसात्मक क्रान्ति ला सकता है।
बड़े खेद के साथ लिखना पड़ रहा है कि गाँधीजी के कत्ल के पाँच प्रयास पहले
भी किये गए। तुषार गाँधी महात्मा गांधी के प्रपौत्र के अनुसार
एक 25 जून 1934 में पहली कोशिश
दो - सन 1944 में पंचगनी में
तीन - सन् 1944 में तीसरी कोशिश
चार - 29 जून 1946 को चौथी कोशिश
पाँचवी - कत्ल के 10 दिन पहले भी हमला हुआ 20 जनवरी 1948 को भी
और अन्त में 30 जनवरी 1948 को बिरला भवन पर (मन्दिर) पर नाथूराम गोडसे
हत्यारे ने गाँधीजी के सीने में मारी तीन गोलियाँ गाँधीजी हे राम कहते
हुए जमीन पर धड़ाम से गिर पड़े। इस प्रकार अहिंसा के पुजारी का एक चरम
पन्थी द्वारा अन्त हुआ।
आजकल देश में दो तरह की विचार धारा चल रही है। एक चरमपन्थी और दूसरी
अहिन्सावादी।
आज इस बात को 76 साल हो गए। आज उग्रवादियों से सावधान रहना होगा। अतः
ऐसी महान् आत्मा को उनकी 76वीं पुण्य तिथि पर ब्यावर हिस्ट्री परिवार
का शत् शत् नमन्।
30-01-2024
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