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महान् क्रान्तिकारी सन्यासी 
महर्षि दयानन्द सरस्वती के जीवन पर एक दृष्टि 
1824 - 1883 

लेखक वासुदेव़ मंगल

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हर एक महापुरूष में एक विशेष शक्ति होती है जो अन्यजनो को उसकी ओर आकर्षित करती है। स्वामी दयानन्द से लोग शत्रु बनकर शास्त्रार्थ करने आते थे परन्तु उनके सामने जाते ही उनके अनुयायी हो जाते थे जिनमें से बहुत से तो प्रायः अपना धन, सम्पत्ति ओर प्राणों को भी उनके हवाले कर देते थे।
महापुरूषों में एक असाधारण विशेषत्व होता है जो अन्य मनुष्यों से उनकी पहिचान कराती है। स्वामी दयानन्द ने बालपन में ही इस मनुष्यत्व के उच्च दृश्य दिखलाये।
शिव रात्री के रोज पिता के भय से भी भयातुर न होकर स्वतन्त्रतापूर्वक उनके सामने अपने विचारों को प्रकट करना एक महामनुष्यत्व का काम था।
फिर माता का पे्रम, भाई बहनों का स्नेह और घर के प्यार से बिल्कुल बेपरवाह होकर, घर बार छोड़ना उस महामनुष्य की दूसरी साक्षी थी।
साधुपन के वेश से निर्भय होकर अपने मन्तव्य दृढ़ता से स्थिर रहना उसके मनुष्यत्व की तीसरी साक्षी थी।
नर्बदा के किनारे कठिन से कठिन मार्गों से पार होना और पीछे लौटने का विचार भी न करना उस महापुरूष के चरित्र की चैथी साक्ष्य थी।


स्वामी बिरजानन्द की गालियों और उनकी मार की परवाह न कर निरन्तर विद्या प्राप्ति के लिये उनके पीछे लगा रहना उसी उच्च शुद्धाचार की पाँचवी साक्षी थी।
स्वामी दयानन्द बाल जितेन्द्री थी। मृत्यु तक ब्रह्मचर्य की सामथ्र्य उनमें विद्यमान थी। वे परम योगी, महावैरागी थे परन्तु फिर भी उनको, मनुष्य आत्मा के निर्बल होने का इतना निश्चय था, कि कभी स्त्रियों को अपने पास आने की आज्ञा नहीं देते थे। यदि कोई स्त्री आती थी तो उसकी ओर पीठ करके बैठ जाते थे और सदैव स्त्रियों को यहीं शिक्षा देते थे, कि अन्य मनुष्यों के पास नहीं जाना चाहिये। अपने पुरूषों को भेजो। वह हमसे उपदेश सुनकर तुमको सुना देवेंगें। स्वामीजी परदे को नहीं चाहते थे, परन्तु तो भी स्त्रियों की असीम स्वतन्त्रता के विरोधी थे। वह प्रायः यह कहते थे कि ‘माता मैं उन फकीरों में से नहीं हूँ जो पुत्र देते है।’
स्वामी दयानन्द में दुसरा बड़ा गुण उनकी निर्भयता थी। उन्होने अक्सर पौराणिक मत की राजधानियों में जाकर पौराणिक मत पर कटाक्ष करने पर अनेक दुर्वचन सहे। विष भक्षण किया और नाना प्रकार के क्लेश सहे, निन्दा सुनी, परन्तु कभी पीछे हटने का चिन्तन भी नहीं किया। उनसे न डरकर कई बार बडे़ से बडे़ वर्तमानिक राज्याधिकारियों के सामने राज्य धर्म का खण्डन अति स्पष्ट रूप से किया।
स्वामी दयानन्द अपने उद्देश्य को पूर्ण करने में न तो कभी वार्तमानिक हाकिमों के कारागृहों से डरे और न ही अपने विपक्षियों की खड़ग से और न ही विपक्षियों की निन्दा ने और न ही उनके विष ने कुछ उनपर असर किया। उनका मुख उनके प्रकाश से इस प्रकार चमकता था कि क्षण भर में उन विपक्षियों को भयभीत कर देता था। उनका कद लम्बा, वर्ण प्रकाशयुक्त श्वेत, नेत्र बडे़ बडे़ लम्बे और प्रकाशयुक्त थे और बाल भूरे। उनकी घ्वनि साफ और बडे़ जोर की थी। उनका भाषण उपदेश के समय बच्चों का सा मीठा होता था परन्तु मिथ्या शिक्षा और बुरे आचारों के विपरीत क्रोध में भरकर सिंह की गर्जन के समान हो जाता था। जहाँ जहाँ स्वामीजी जाते, मनुष्यों के समूहों के समूह उनके चरणरज को शिरोधारण करते थे। स्वामीजी सदैव सन्घ्या उपासना प्राणायाम और व्यायाम किया करते थे।
जोधपुर महाराज के प्रवासकाल में उनके दरबार की नृतकी ने स्वामीजी के अल्लहड़ वचनों से कूपित होकर एक दिन खानसामे से दुध में पीसा हुआ काॅच मिलवाकर उनको पिलवा दिया। परिणामस्वरूप स्वामीजी की आँतों में जलन व तीक्षण दर्द होने लगा परन्तु फिर भी स्वामीजी उस दर्द को बराबर सहन करते रहे। अन्त में स्वामीजी के अनुयाईयों ने उन्हें माउण्ट आबू बुला लिया। यहाँ पर भी स्वामीजी की बैचेनी बरकरार रहीं। आखरी समय में, 27 अक्टूबर सन् 1883 ई. को. स्वामीजी अपनी ईच्छानुसार अजमेर पधारें। अजमेर मंे उनकी सेवा सुश्रुषा की गई परन्तु यह जाज्वल्य दीप अधिक समय तक जीवित नहीं रह सका।
अजमेर में कार्तिक बदी अमावस्या विक्रम संवत् 1940 ई. मंगलवार दीपामालिका के रोज दिनांक 30 अक्टूबर सन् 1883 ई. को साँयकाल 6 बजे गायत्री मन्त्र पढ़ समाधिस्थवत् हो श्वास को रोककर
एकाएक ही निकाल दिया। इस प्रकार प्राचीन विद्या का सूर्य अस्त हो गया। इस प्रकार धर्म सम्राट, गौओं और विघवाओं का सहायक, जिसने भारत माता और उसमें निवास करने वाले माता जनित असंख्य बहिन, भाईयों के सुख का शुभचिन्तक, हमेशा हमेशा के लिये पंचतत्व में विलीन हो गया। 

 

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