समलैंगिक
विवाह भारतीय संस्कृति का पर्याय नहीं।
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सामयिक लेख : वासुदेव मंगल स्वतन्त्र लेखक
भारतीय संस्कृति वैदिक संस्कृति हैं यह आध्यात्म पर आधारित हैं यह पूरब
की संस्कृति है जो ऋषि-मुनियों द्वारा रचित शाश्वत विधा है विधान है।
दर्शनशास्त्र में विवाह एक पवित्र बन्धन है जो प्राकृतिक होता है। आप
यहाँ पर सभी जीवों और प्राणियों को नहीं नकार सकते है। इनमें भी तो
पवित्र प्राकृतिक बन्धन होता है तब ही जीवों की उत्पत्ति होती रहती है।
नभ, जल और थल में निवास करने वाले जीव विपरीत लैंगिक विवाह से ही
परिपूर्ण होते है। आप देखिये ये जीव या प्राणी भी ता उम्र, अपनी सन्तान
या बच्चों की परवरिश में गुजार देते है। उनकी रक्षा में तथा लालन पालन
में सदा मशगूल रहते है।
अतः विवाह जो प्राकृतिक आवश्यकता है प्रकृति द्वारा ही शाश्वत होने
दीजिये।
अतः समलैंगिक विवाह विधिक स्वीकारोक्ति न होकर प्राकृतिक विधा ही होनी
चाहिए जिसमें कुदरती समावेश हो। सभी धर्म विपरित जेण्डर के बीच विवाह
को मान्यता देते है।
समलैंगिक विवाह को विधिक मान्यता भारत की संस्कृति के लिये घातक सिद्ध
होगी।
अतः भारत की परिवार व्यवस्था को अक्षुणण रहने दिया जाना चाहिये जो एक
मात्र भारतीय संस्कार और संस्कृति से पल्लवित होता रहा है। इसमें विकृति
पैदा नहीं की जानी चाहिये। भारत की आधार शिला ही परिवार व्यवस्था हैं
हमारी समृद्धि तो बढ़ रही है जो संसकारी है या भौतिक साधनों से परिपूर्ण
है परन्तु संस्कृति में ह्रास हो रहा है जो विनाश का कारण बनती जा रही
है।
पति पत्नि का एकात्म सम्बन्ध भारत की व्यवस्था का केन्द्र बिन्दु है।
परिवार ही परम्परा का वाहक है।
सारे सांस्कृतिक जीवन मूल्य परिवार के माध्यम से ही एक से दूसरी पीढ़ी
को हस्तान्तरित होते है। परिवार ही राष्ट्र की प्रथम ईकाई है।
परिवार ही संस्कृति को आगे से आगे बढ़ाता रहता है पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ाता
रहता है। परिवार नाम संस्था विवाह से ही बनती हैं हिन्दू परम्परा में
विवाह महत्वपूर्ण शास़्त्रीय संस्कार हैं यह केवल पति पत्नि का मिलन
मात्र ही नहीं है। विवाह ही पारिवारिक मूल्यों के संरक्षण और सामाजिक
उत्तरदायित्वों का अहसास करता है। सन्तानोत्पत्ति इसका उद्देश्य होता
है।
समलैंगिक विवाह में सन्तानोत्पत्ति होगी ही नहीं। हिन्दुओं में विवाह
एक धार्मिक कार्य हैं विवाह केवल यौन इच्छाओं की पूर्ति के लिये ही नहीं
होता है। भारत की विवाह संस्था वैदिक काल से भी प्राचीन हैं विवाह के
बिना व्यक्ति अधूरा है। विवाह से ही व्यक्ति पति बनता है। पिता बनता
है। स्त्री भी विवाह के बाद ही माता बनती है। माता-पिता होने के लिये
सन्तान आवश्यक है। भारतीय जन मानस की श्रद्धा है माता-पिता।
माता-पिता की श्रेष्ठता भारत के मन में बहुत गहरी है। मनुष्य तीन ऋण
लेकर जन्म लेता है। देवऋण, ऋषिऋण और पितृऋण। पितृऋण उतारने के लिये
विवाह और सन्तान आवश्यक है।
समलैंगिक जिनसे सन्तान उत्पन्न करना सम्भव नहीं हैं इसीलिये धर्म के
अनुसार विवाह पद्धति को स्थायी रखना परम आवश्यक है। विवाह मण्डप में
पति-पत्नि अग्नि की साक्षी में वर-वधू एक नहीं सात जन्मों तक साथ रहने
का संकल्प लेते है। कितनी भी कठिन परिस्थिति क्यों न हो परन्तु
पति-पत्नि साथ नहीं छोड़ते है।
यह ही पवित्र बन्धन माना जाता है। पश्चिम में विवाह विच्छेद साधारण बात
है। 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से तो
मुक्त कर दिया लेकिन समलैंगिक विवाह को वैध नहीं बनाया।
कुछ लोग समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दिलाने की मांग कर रहे है।
इस प्रकार की अनुचित और अनैतिक मांग किसी भी तरह से जायज नहीं है।
चिकित्सों के मुताबिक समलैंगिक सम्बन्ध रखने वालें में एचआईवी एड्स का
खतरा ज्यादा देखा गया है। उनमें नशे की लत, अवसाद, हेपेटाइटिस और यौन
संचारी रोगों के होने की आशंका सर्वाधिक रहती है।
अतः समलैंगिक विवाह की मान्यता से भारतीय संस्कृति छिन्न-भिन्न हो
जायेगी। फिर पाश्चात्य संस्कृति और भारतीय संस्कृति के मुल्यों में कोई
अन्तर नहीं रह जायेगा।
अतः यह मुद्दा भारत देश के लिये बड़ा ही संवेदनशील मुद्दा है जिसपर बहुत
गहरा विचार कर फैसला करना जरूरी है अन्यथा बहुत सारे विकार पैदा हो
जायेंगे जिनका समाधान नामुनकिन होगा।
यह लेखक के अपन विचार है। |