‘‘ब्यावर’ इतिहास के झरोखे
से.......
✍वासुदेव मंगल की कलम से.......
ब्यावर सिटी (राज.)
छायाकार - प्रवीण मंगल (मंगल फोटो स्टुडियो, ब्यावर)
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395वें जन्म दिवस पर विशेष
पादशाही के संस्थापक : शिवाजी
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प्रस्तुतकर्त्ता व रचियता - वासुदेव मंगल, ब्यावर
मुस्लिम आक्रांताओं के क्रूर पंजों में छटपटाते आम भारतीय जन को मुक्ति
दिलाने के लिए भारत माता ने एक सिंह-सपूत को जन्म दिया, जिसने हिन्दू
पद पादशाही की पुनः स्थापना की। यह वीर शिरोमणि और कोई नहीं छत्रपति
शिवाजी महाराज थे। माता जीजाबाई ने फाल्गुन कृष्ण तृतीया तद्नुसार 19
फरवरी, 1630 को शिवाजी रूपी नर रत्न को जन्म दिया। बालक का आगमन होते
ही सम्पूर्ण शिवनेरी दुर्ग आनन्द से फूल उठा तथा घर-घर में दीपक जलाए
गए और दीवाली मनाई गई। माँ जीजाबाई के स्नेहपूर्ण अनुशासन में शिवाजी
की शिक्षा बहुत तीव्र थी। युद्ध शासन सम्बन्धी नीतियाँ, युद्ध, रण-कौशल
आदि उन्होंने बहुत जल्द सीख लिए थे। माँ जीजाबाई ने उन्हें धार्मिक
संस्कार देने के साथ ही उनमें देशभक्ति की भावना कूट-कूटकर भरी थी।
शिवाजी बहुत निर्भय थे। बचपन में ही गुरू के कहने पर वे बाघनी का दूध
ले आए थे। मात्र 16 वर्ष मेंं उन्होंने तोरण र्दुग पर विजय पताका फहरा
दी। अफजल खाँ के साथ किया गया युद्ध उनके रणचातुर्य का अनूठा उदाहरण
है।
शिवाजी सात्विक प्रवृति के थे। साधु-संतों से उन्हें बड़ा प्रेम था। उनके
जीवन का हर क्षण और हर दिन युद्धमय था। व्यस्त समय में भी वे साधु-सन्तों
के दर्शन कर लेते थे जिसमें तुकाराम, मोइया गासावों आदि प्रमुख हैं,
जबकि गुरू समर्थ रामदास के बिना तो उनके जीवन की कल्पना ही नहीं की जा
सकती। वे बहुत उदार अन्तःकरण के और दानी थे। जो भी उनके पास आता वह खाली
हाथ नहीं लौटता था। वे बहुत संयमी एवं अनुशासन प्रिय थे।
शिवाजी अनेक भाषाविद् और साहित्य मर्मज्ञ भी थे। उनके द्वारा लिखी गई
‘राज्य व्यवहार कोष’ से नौकायन शास्त्र का ज्ञान, शासन व्यवस्था आदि से
उनकी योग्यता का परिचय हमें प्राप्त होता है। अपनी प्रजा और सैनिकों से
वे कुटम्बियों से भी अधिक स्नेह रखते थे। वे स्त्रियों का भी सम्मान
करते थे।
शिवाजी का जीवन ध्येयमय तथा त्यागमय था। देश-धर्म के हितार्थ सर्वस्व
बलिदान में जो अलौकिक आन्नद प्राप्त होता है उसका अनुभव शिवाजी ने
राष्ट्र को कराया। स्वराज्य का अमृत लेकर वे प्रगट हुए और सर्वत्र
उन्होंने नव चैतन्य का निर्माण किया। शिवाजी और उनके द्वारा निर्मित
हिन्दू सामा्रज्य दोनों ऐसी विलक्षण सृष्टि थी जिनसे राष्ट्रीयत्व,
पौरूष, पराक्रम तेजस्विता, स्वधर्माभिमान, आत्म-बलिदान आदि दैवी गुण
सतत् प्रवाहित होते रहे। उनकी राज्य साधना का अधिष्ठान व्यक्तिगत
आकांक्षा से नहीं अपितु उच्च धार्मिक तत्वों से बना था। शिवाजी के
अविर्भाव ने धर्म का वास्तविक अर्थ प्रकट किया।
धर्म केवल पूजा-स्थलों या पुस्तकों तक ही सीमित नहीं रहा अपितु वह जीवन
में उतरने लगा था। शिवाजी का कार्य प्रतिक्रियात्मक और द्वेषमूलक नहीं
था। वह रचनात्मक एवं भावनात्मक था।
19.02.2024
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